Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 1
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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विषय में भी चरितार्थ है । पर विचार करनेसे ज्ञात होता है कि रूपादि गुण अमूर्त होनेसे इन्द्रियोंके साथ उनका सन्निकर्ष संभव नहीं है । यतः चक्षु इन्द्रिय पदार्थका स्पर्श किये बिना भी रूपको ग्रहण कर लेती है ।
चक्षुका प्राप्यकारित्व-विमर्श
इन्द्रियोंमें चक्षु और मन अप्राप्यकारी हैं । अर्थात् ये पदार्थोंको प्राप्त किये बिना ही दूरसे हो ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं। स्पर्शन, रमना और घ्राण ये तीन इन्द्रिय पदार्थोंसे सम्बद्ध होकर उन्हें जानती हैं। कान शब्दको स्पष्ट होनेपर सुनता है। स्पर्शनादि इन्द्रिय पदार्थोंके सम्बन्धकालमें उनसे स्पष्ट और बद्ध होती हैं । यहाँ बद्धका अर्थ इन्द्रियोंकी अल्पकालिक विकारपरिणति है | उदाहरण के लिये कहा जा सकता है कि अत्यन्त शीत जलमें हाथके डुबानेपर कुछ समय पश्चात् हाथ ऐसा ठिठुर जाता है कि उससे दूसरा स्पर्श शीघ्र गृहीत नहीं होता 1 इसी प्रकार किसी तीक्ष्ण पदार्थके खा लेनेपर रसना भी विकृत हो जाती है, पर श्रवणसे किसी भी प्रकार के शब्द सुनेर ऐसा कोई रिकार प्राप्त नहीं होता ।
चक्षु इन्द्रियको कुछ विचारक प्राप्यकारी मानते हैं । उनका अभिमत है कि चक्षु तैजस पदार्थ है । अतः उसमेंसे किरणें निकलकर पदार्थोंसे सम्बन्ध करती है और तब चक्षुके द्वारा पदार्थका ज्ञान होता है । चक्षु पदार्थके रूप, रस, गंध आदि गुणोंमेंसे केवल रूपको ही प्रकाशित करती है । अतः चक्षु तेजस है । मन व्यापक आत्मासे संयुक्त होता है और आत्मा जगतके समस्त पदार्थोंसे संयुक्त है । अतः मन किसी भी बाह्य वस्तुको संयुक्तसंयोग आदि सम्बन्धोसे जानता है । मन अपने सुखका साक्षात्कार संयुक्तसमवाय सम्बन्धसे करता है । मन मासे संयुक्त है और आत्मा में सुखका समवाय है । अतः चक्षु और मन दोनों प्राप्यकारी हैं।
उपर्युक्त तर्क विचार करनेपर सदोष प्रतीत होता है । यदि चक्षु पदार्थका स्पर्श कर पदार्थको जानती होती, तो आँखमें लगे हुए अंजनको भी जान लेती । किन्तु दर्पण में देखे बिना अंजनका ज्ञान नहीं होता । अतः वह अप्राप्यकारा है ।
क्षुको प्राप्यकारी सिद्ध करनेके लिये जो यह कहा जाता है कि चक्षु ढकी हुई वस्तुको नहीं देख सकती, अतः प्राप्यकारी है, यह कथन भी उचित नहीं है । काँच, अभ्रक और स्फटिकसे ढके हुए पदार्थोंको भी चक्षु देख लेती है। चुम्बक दूरसे ही लोहेको खींच लेता है, फिर भी यह किसी चीजसे आच्छादित हुए लोहेको नहीं खींच पाता है । अतएव जो ढकी हुई वस्तुको ग्रहण न कर सके, वह प्राप्यकारी है, ऐसा नियम बनाना सदोष है ।
atiकर महावीर और उनकी देशना : ४९९