Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 1
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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चक्षुको तेजोद्रव्य मानना भी प्रतीतिविरुद्ध है । यतः तेजोद्रव्य स्वतन्त्र द्रव्य नहीं है । दूसरी बात यह है कि सेजोद्रव्यमैं उष्ण स्पर्श और भास्वर रूप अवश्य पाये जाते हैं। पर चक्षु में उष्ण स्पर्श और भास्वर रूप नहीं हैं। ऐसा तेजो द्रव्य तो सम्भव है, जिसमें उष्ण स्पर्श प्रकट नहीं रहता, किन्तु भास्वर रूप रहता है। जैसे दीपककी प्रभा। और ऐसा भी तैजस द्रव्य देखा जाता है, जिसमें उष्ण स्पर्श रहता है, किन्तु भास्वरता नहीं रहती, यथा गर्म जल । किन्तु ऐसा तैजस द्रव्य नहीं देखा जाता है, जिसमें रूप और स्पर्श दोनों ही प्रकट न हो। अतएव चक्षको न तो तैजस द्रव्य ही माना जा सकता है और न उससे निकलनेवाली किरणोंकी ही कल्पना की जा सकती है। नक्तंचर-मारका उदाहरण भी दोषपूर्ण है। यतः मार्जारकी आँखोंमें किरणें होनसे समस्त प्राणियोंकी आँखोंमें किरणें रहनेका नियम नहीं बनाया जा सकता है । __चक्षुको प्राध्यकारी माननेपर पदार्थमें दूर और निकट व्यवहार सम्भव नहीं है । इसी प्रकार संशय और विपर्यय ज्ञान भी उत्पन्न नहीं हो सकेंगे। वस्तुत: आँख एक कैमरा है, जिसमें पदार्थों को किरणें प्रतिबिम्बित होती हैं । किरणोंके प्रतिबिम्ब पड़नेसे ज्ञानतन्तु उबुद्ध होते हैं और चक्षु उन पदार्योको देख लेती है । चक्षु में पड़े हुए प्रतिबिम्बका कार्य केवल चेतनाको उद्बुद्ध करना है। अतएव चैतन्य मनकी प्रेरणासे नक्ष योग्य देशमें स्थित पदार्थको ही जानती है, अपने में पड़े हुए प्रतिबिम्बको नहीं । पदार्थोंके प्रतिबिम्ब पड़ने की क्रिया केवल स्विचको दबानेकी क्रियाके तुल्य है। अतः चक्षु अप्राप्यकारी है। यह अपने प्रदेशोंमें स्थित रहकर मनोयोगकी सहायतासे पदार्थों के रूपका अवलोकन करती है । चक्षुको प्राप्यकारी मानना अनुभव और तर्क दोनोंके विरुद्ध है। धोत्रका अप्राप्यकारिस्व-विमर्श
कतिपय दार्शनिक चक्षुके समान श्रोत्रको भी अप्राप्यकारी मानते हैं । उनका अभिमत है कि शब्द भी दूरसे ही सुना जाता है । यदि श्रोत्र प्राप्यकारी होता, तो शब्दमें दुर और निकट व्यवहार सम्भव नहीं होना चाहिये था । किन्तु जब हम कानमें घुसे हुए मच्छरके शब्दको सुन लेते हैं, तो उसे अप्राप्यकारी कैसे कहा जा सकता है ? प्राप्यकारी प्राण इन्द्रियके विषयभूत गन्धमें भी कमलकी गन्ध दूर है, मालतीको गन्ध पास है, इत्यादि व्यवहार देखा जाता है । यदि चक्षके समान श्रोत्र भी अप्राप्यकारी होता, तो जैसे रूपमें दिशा और देशका संशय नहीं रहता, उसी प्रकार शब्दमें भा नहीं होना चाहिये था। किन्तु शब्दमें यह किस दिशासे आया है, इस प्रकार का संशय देखा जाता है। अतः ४२० : सीझर्थर महावीर और उनकी आमार्य-परम्परा