Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 1
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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कुशल
स्वर्णकार शुद्ध सोलेको और नकली सोनेको अपने अनुभवके बलसे तत्काल पहचान लेता है, उसी प्रकार इस बुद्धिका वारी व्यक्ति ससारके पदार्थोंका ज्ञान प्राप्त कर लेता है।
पारिणामिक
पारिणामिक बुद्धिका वह अंश है जो अपने उद्देश्यको अनुमान तर्क, उपमान, रूपक आदिके आधारपर पूर्ण करता है। विद्या, बुद्धि और आयुके विकासके साथ-साथ इस बुद्धिका भी विकास होता है। इसका वास्तविक उद्देश्य कर्मकालिमाको क्षयकर निर्वाण प्राप्त करना है ।
मतिज्ञान के भेव प्रभेव
मतिज्ञानके ३३६ भेद माने गये हैं । अवग्रह आदि ज्ञान बहु, बहुविध, क्षित्र, अनिःसृत, अनुक्त, ध्रुव, अल्प, अल्पविध, अक्षित्र, निःसृत, उक्त और अध्रुव इन बारह प्रकारके पदार्थों को ग्रहण करते हैं । बहुत वस्तुओं के ग्रहण करनेको बहुज्ञान, बहुत तरहकी बहुत वस्तुओंको ग्रहण करनेको बहुविधज्ञान; वस्तुके एक भागको देखकर पूरी वस्तुको जान लेना अनिःसृतज्ञान, बिना कहे अभिप्रायसे ही जान लेना अनुकशान; बहुत काल तक जैसे का तैसा निश्चल ज्ञान होना ध्रुवज्ञान; अल्पका अथवा एकका ज्ञान होना अल्वा काखी त वस्तुओंका ज्ञान होना एकविधज्ञान; शनैः शनैः वस्तुओंको जानना अक्षिप्रज्ञान; सामने विद्यमान पूर्ण वस्तुको जानना निःसृतज्ञान; कहनेपर जानना उक्तज्ञान एवं चञ्चल रूपमें पदार्थोंको अवगत करना अध्रुवज्ञान है। इस प्रकार बारह प्रकारके पदार्थोंके अवग्रह, बारह प्रकारकी ईहा, बारह प्रकारका अवाय और भेद बारह प्रकारकी धारणा होती है। ये समस्त भेद मिलकर १२४४ = ४८ होते हैं । इनमेंसे प्रत्येक ज्ञान पाँच इन्द्रिय और मनके द्वारा होता है । अतएव ४८×६ = २८८ अर्थावग्रह सहित मतिज्ञानके भेद हैं !
अस्पष्ट पदार्थ अवग्रहको व्यंजनाबग्रह और स्पष्ट पदार्थके अवग्रहको अर्थावग्रह कहा जाता है। अर्थावग्रह, ईहा, अवाय और धारणा ये ज्ञान सभी इन्द्रियोंसे उत्पन्न होते हैं। पर व्यंजनावग्रह चक्षु और मनसे उत्पन्न नहीं होता ! यतः चक्षु और मन पदार्थको दूरसे ही ग्रहण करते हैं, उनसे स्पृष्ट होकर नहीं ! अतः व्यंजनावग्रह् चार ही इन्द्रियोंसे होता है। इस प्रकार व्यंजनाय ग्रहके बहु आदि बारह विषयोंको अपेक्षा - १२x४ = ४८ भेद हैं । अतएव मतिज्ञानके कुल २८८ + ४८ = ३३६ भेद होते है । इस सांव्यवहारिक प्रत्यक्षके अन्तर्गत मतिज्ञानका विशेष वर्णन निहित है।
४३० : तीर्थंकर महावीर और उनका आचार्य-परम्परा