Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 1
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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व्यवसाय । शानका आध्यात्मिक फलोअप्राप्ति है। ब
अज्ञानकी निवृत्ति होती है । जिस प्रकार प्रकाश अंधकारको हटाकर पदार्थोंको प्रकाशित करता है, उसी प्रकार ज्ञान अज्ञानको हटाकर पदार्थका बोध कराता है । पदार्थबोधके पश्चात् होनेवाले हान - हेयका स्याग, उपादान और उपेक्षा बुद्धि प्रमाणके परम्पराफल हैं। मति, श्रुत आदि ज्ञानोंमें हान, उपा दान और उपेक्षा ये तीनों फल निहित रहते हैं, पर केवलज्ञानमें केवल उपेक्षा ही रहती है। राम और द्वेषमें चित्तका प्रणिधान नहीं होना उपेक्षा है ।
ज्ञान आत्माका अभिन्न गुण है। इस ज्ञानकी पूर्व अवस्था प्रमाण और उत्तर अवस्था फल है । जो ज्ञानधारा अनेक ज्ञानक्षणोंमें व्याप्त रहती है, उस ज्ञानधाराका पूर्व क्षण साधकतम होनेसे प्रमाण होता है और उत्तर क्षण साध्य होनेसे फल | प्रमाण और फल कथंचित् भिन्नाभिन्न हैं । आत्मा प्रमाण और फल दोनोंरूपसे परिणति करती है । अत: प्रमाण और फल अभिन्न हैं तथा कार्य और कारणरूपसे क्षणभेद एवं पर्यायभेद होनेके कारण वे भिन्न हैं । अतएव प्रमाण और फलमें कथंचित् भिन्नाभिन्नसम्बन्ध है । प्रमाणका साक्षात्फल मशाननिवृत्ति और परम्पराफल हान, उपादान और उपेक्षा बुद्धि है ।
प्रमाणाभास
जो वास्तविक प्रमाणलक्षणसे रहित हैं और प्रमाणके तुल्य प्रतीत होते है, वे प्रमाणाभास है । अस्वसंविदितज्ञान, गृहीतार्थंज्ञान, निर्विकल्पक दर्शन, संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय आदि प्रमाणाभास है, क्योंकि इनके द्वारा प्रवृत्तिके विषयका यथार्थज्ञान नहीं होता। जो अस्वसंविदितज्ञान अपने स्वरूपको ही नहीं जानता है, वह पुरुषान्तरके ज्ञानके समान हमें अर्थबोध कैसे करा सकेगा ? निर्विकल्पकदर्शन सव्यवहारानुपयोगी होनेसे प्रमाणकोटिमें नहीं आता। अविसवादी और सम्यग्ज्ञान प्रमाण कहा जाता है । जिस ज्ञानमें यह लक्षण घटित न हो, वह ज्ञान प्रमाणाभास है । संशयज्ञान अनिर्णयात्मक होनेसे, विपर्ययज्ञान विपरीत एक कोटिका निश्चय होनेसे और अनध्यवसायज्ञान किसी भी एक कोटिका निश्चायक न होनेसे विसंवादी होनेके कारण प्रमाणाभास हैं ।
प्रमाणाभासों की संख्या अगणित हो सकती है। घर इनमें प्रत्यक्षाभास, परोक्षाभास; सांव्यवहारिक प्रत्यक्षाभास, मुख्यप्रत्यक्षाभास, स्मरणाभास, प्रत्य भिज्ञानाभास, तर्काभास, अनुमानाभास, आगमाभास, हेत्वाभास, विषयामास तीर्थंकर महावीर और उनकी देशना : ४५३