Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 1
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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स्वार्षानुमामके अंग _स्वार्थानुमानके तीन अंग है:-(१) धर्मी, (२) साध्य और (३) हेतु | हेतुगमक होनेसे, साध्य गम्य होनेसे एवं धर्मी साध्य और हेतु धोका भाषार होनेसे अंग हैं। आधार-विशेषमें ही अनुमेयको सिद्धि करना अनुमानका प्रयोजन है। साध्यको पक्ष भो कहा आता है, यह धर्मविशिष्ट धर्मी है। यों तो पक्षशब्द से साध्यधर्म और धर्मीका समुदाय विवक्षित है । स्वार्थानुमानके शानरूप होनेके कारण शानमें धर्म-धर्मीका विभाग सम्भव नहीं, पर अनुमानका प्रयोग करनेके लिए उसका शब्दसे उल्लेख करना ही पड़ता है । यथा-'पर्वतोऽय वह्निमान्, 'धूमवत्वात्' अनुमानवाक्यका प्रयोग पर्वतमें वह्निको अवगत करनेके लिए करना पड़ता है, उसो प्रकार स्वार्थानमानमें भी उसके बोधार्थ वाक्यका प्रयोग अपेक्षित होता है। धर्मो : स्वरूप-निर्धारण ___ धर्मी प्रसिद्ध होता है । इसको प्रसिद्धि कहीं प्रमाणसे, कहीं विकल्पसे और कहों प्रमाण-विकल्प दोनोंसे हातो है। प्रत्यक्षादि प्रमाणोंसे सिद्ध धर्मी प्रमाणसिद्ध कहलाता है, यथा पर्वतादि । जिसकी प्रमाणता और अप्रमाणता निश्चित न हो और जो प्रतीतिमात्रसे सिद्ध हो, वह विकल्पसिद्ध कहा जाता है। विकल्पसिद्ध धीमें सत्ता या असत्ता साध्य होती है, यतः जिनकी सत्ता या असत्तामें विवाद है, वे हो धर्म विकल्पसिद्ध होते हैं । प्रमाण और विकल्प दोनोंसे सिख धर्मी उभयसिद्ध कहलाते हैं। परानुमानके अंग
परार्थानुमानके भी स्वार्थानुमानके समान धर्मी, साध्य और साघन ये तीन अथवा पक्ष और हेतु ये दो अंग माने जाते हैं। ज्ञानात्मक परार्थानुमानमें उक्त अंग संभव हैं, पर बचनात्मक परार्थानुमान में प्रतिज्ञा और हेतुदो ही अवयव होते हैं। __धर्म-धर्मीके समुदायरूप पक्षके वचनको प्रतिज्ञा कहा जाता है । यथा-- "पर्वतोऽयं वह्निमान्" में साध्यका निर्देश किया गया है, अतः उक्त पद प्रतिज्ञावाक्य है। ___ अनुमेयको सिद्ध करनेके लिए साधनके रूपमें जिस वाक्यावयवका प्रयोग किया जाता है, वह हेतु है। साधन और हेतुमें साधारणतः कोई अन्तर नहीं है, इसी कारण दोनोंका प्रयोग पर्यायरूपमें पाया जाता है, पर इनमें वाच्य१. प्रसिद्धो धर्मी-परीक्षामुख ३।२३. २. विकल्पसिद्धे तस्मिन् ससंतरे साध्ये-बही, ३१२४,
सीर्थकर महावीर और उनकी देशना : ४४५