Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 1
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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उपनय और निगमन तो केवल उपसंहारवाक्य हैं, जिनकी अपनेमें कोई उपयोगिता नहीं हैं । पक्षमें हेतुका उपसंहार उपनय और हेतुपूर्वक पक्षका वचन निगमन है । संक्षेपमें लाघव, आवश्यकता और उपयोगिताको दृष्टिसे प्रतिज्ञा और हेतु ये दो ही अवयव ग्राह्य हैं ।
हेतु भेद एवं प्रकार
:
अविनाभावके व्यापक स्वरूपके आधारपर हेतुके सात भेद हैं: - (१) स्वभाव, (२) व्यापक, (३) कार्य, (४) कारण ( ५ ) पूर्वचर, (६) उत्तरचर और, (७) सहचर | सामान्यतः हेतु के दो भेद हैं: -- (१) उपलब्धिरूप और (२) अनुपलब्धिरूप । ये दोनों हेतु विधि और प्रतिषेध दोनोंके साधक हैं। इनके संयोगसे हेतुके २२ भेद हो जाते हैं ।
हेतुभेद
उपलब्धि
अविरुद्धोपलब्धि विरुद्धोपलब्धि अविरुद्धानुपलब्धि विरुद्धानुपलब्धि
अ. अ.
म.
अवि. अ. अ. व्याप्य. कार्य. कारण. पू. उ. सह.
अनुपलब्धि
I
वि. ख्या. कार्य, कारण. पू. उ. सह. कुल हेतुभेद = ६+६+३+७= २२ (परीक्षा मुखके अनुसार ) १. विधि-साधन -- ६ २. निषेध-साधन २२
२८
|
1
I
1
I
अ० व्याप्य कार्य. कारण. पू. उ. सह.
स्व.
वि. कार्य. वि. कारण. वि. स्वभाव साक्षात् निषेध-साधन – २+४=६
परम्परा निषेध साधन
१६
२२
( प्रमाणपरीक्षाके अनुसार )
हेतुके वाईस भेवोंका सामान्य स्वरूप
विधिसाधक उपलब्धिको अविरुद्धोपलब्धि और प्रतिषेध-साधक उपलब्धि
को विरुद्वtपलब्धि कहा जाता है ।
तीर्थंकर महावीर और उनकी देशना ४४७