Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 1
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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स्मृतिकी अविसंवादिता स्वतः सिद्ध है । अन्यथा अनुमानकी प्रवृत्ति, शब्दव्यवहार और विश्वके अन्य समस्त व्यवहार निरर्थक हो जायेंगे। यह सम्भव है कि जिस स्मृति के विषयमें विसंवाद हो उसे अप्रमाण माना जा सकता है।
विस्मरण, संशय और विपर्यासरूपी समारोपका निराकरण स्मृति के द्वारा होता है। अतः इसे अविसंवादी होनेके कारण प्रमाण मानना पड़ेगा । अनुभवपरतन्त्र होनेके कारण स्मृतिको परोक्ष तो माना जा सकता है, पर अप्रमाण नहीं। प्रत्यभिज्ञान
वर्तमान प्रत्यक्ष, और अतीत स्मरणसे उत्पन्न होनेवाला संकलनात्मक ज्ञान प्रत्यभिज्ञान कहलाता है । यह संकलन एकत्व, सादृश्य, वेसादृश्य, प्रतियोगी, आपेक्षिक आदि ओक प्रकारला होता है। परसुतः सूर्योदविवर्तवर्ती वस्तुको विषय करनेवाले प्रत्ययको प्रत्यभिज्ञान कहा जाता है। प्रत्यवमर्श, संजा और प्रत्यभिज्ञा ये उसीके पर्याय नाम हैं। प्रत्यभिज्ञानमें प्रत्यक्ष और स्मरणइन दोनोंका समुच्चय रहता है । 'यह' अंशको विषय करनेवाला ज्ञान तो प्रत्यक्ष है और 'वह' अंशको ग्रहण करनेवाला ज्ञान स्मरण है। इस प्रकार दो शानोंका संकलन या समुच्चय प्रत्यभिज्ञानमें पाया जाता है।
यह वही है, इस प्रकार वर्तमानका प्रत्यक्ष और उसके अतीतका स्मरण पूर्वक एकत्वका मानसिक संकलन एकत्वप्रत्यभिज्ञान कहलाता है। इसी प्रकार 'गाय सरीखा गवय' होता है । इस वाक्यको सुनकर कोई व्यक्ति वनमें मायके समान पशुको देखकर उस वाक्यका स्मरण करता है और अनन्तर मनमें निश्चय करता है कि यह गवय है। इस प्रकार सादृश्यविषयक संकलन, सादृश्यविषयक प्रत्यभिज्ञान है । 'गायसे विलक्षण भैंस होती हैं । इस वाक्यको सुनकर जिस बाड़ेमें गाय और भैंस दोनों ही विद्यमान हैं, वहां पहुंचनेवाला व्यक्ति गायसे विलक्षण पशुको देखकर उक्क वाक्यका स्मरण करता है और निश्चय करता है कि यह भेंस है। यह वैलक्षण्यविषयक वैसादश्यप्रत्यभिज्ञान है । इसी प्रकार यह इससे दूर है, इत्याकारक आपेक्षिक प्रत्यभिज्ञान, परि१. दर्शनस्मरणकारणकं सकूलनं प्रत्यभिज्ञानम् ।
सदेवेदं तत्सदृशं तद्विलक्षणं तत्प्रतियोगोत्यादि ।। -परीक्षामुख ३।५. २. ननु च तदेवेत्यतीतप्रतिभासस्य स्मरणरूपत्वाद, इदमिति संवेदनस्य प्रत्यक्षरूपत्वात्
संवेदमद्वितयमेवैतत् तादृशमेवेदमिति स्मरणप्रत्यक्षसंवेदनतितयवत् । ततो नक शानं प्रत्यभिज्ञास्यं प्रतिपद्यमानं सम्भावति । -प्रमाणपरीक्षा, पृ. ६९.
तीर्थकर महावीर और उनकी देशना : ४३७