Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 1
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
View full book text
________________
या अप्रमाणज्ञान उत्पन्न होगा, उन कारणोंसे उनकी प्रमाणता और अप्रमाणता उत्पन्न होती है । प्रमाण और प्रमाणताकी उत्पत्तिमें समयभेद नहीं है । ज्ञानको उत्पन्न करनेवाले जो कारण हैं, उनसे भिन्न कारणोसे प्रमाणता उत्पन्न होती है । यतः प्रमाण और प्रामाण्यकी उत्पत्तिमें दीपक और प्रकाशके समान, समयभेद नहीं है ।
ज्ञप्ति और प्रवृत्ति अभ्यासदशा में स्वतः और अनभ्यासदशामें परतः सिद्ध होती हैं'। परिचित अवस्थाको अभ्यासदशा और अपरिचित अवस्थाको अनभ्यास दशा कहा जाता है। अपने दिके जलाशय, नथो, माड़ीयादि परिचित हैं, अत: उनकी ओर जानेपर जो जलज्ञान उत्पन्न होता है, उसकी प्रमाणता स्वतः होती है। पर अन्य परिचित ग्रामादिक में जानेपर 'यहाँ जल होना चाहिए, इस प्रकार जो जलज्ञान उत्पन्न होगा, वह शीतल वायुके स्पर्शसे, कमलोको सुगंधिसे, या जल भरकर आते हुए व्यक्तियोंके देखने आदि पर - निमितोंसे ही होगा। अतः उस जलज्ञानकी प्रमाणता अनभ्यासदशामें परतः मानी जायगी । उत्पत्तिमें परतः प्रमाणता कहनेका तात्पर्य यह है कि अन्तरंग - कारण ज्ञानावरणकर्मका क्षयोपशम होनेपर भी बाह्यकारण इन्द्रियादिकके निर्दोष होने पर ही नवीन प्रमाणतारूप कार्य उत्पन्न होता है, अन्यथा नहीं । अतएव उत्पत्ति में परतः प्रमाणता स्वीकार की गयी है । प्रमाण के भेद
प्रमाण के दो भेद हैं: - ( १ ) प्रत्यक्ष और ( २ ) परोक्ष | आगमिक परिभाषा में आत्ममात्र सापेक्ष ज्ञानको प्रत्यक्ष और जिन ज्ञानों में इन्द्रिय, मन और प्रकाश आदि पर साधनों की अपेक्षा होती है, वे परोक्ष हैं । जितने परनिमित्तक परिणमन हैं, वे सब व्यवहारमूलक हैं। जो मात्र स्वजन्य हैं, वे ही परमार्थ हैं और निश्चय के विषय हैं ।
प्रत्यक्ष शब्द में 'अक्ष' विचारणीय है । अक्षका अर्थ आत्मा है। बताया है कि अक्ष, व्यापू और ज्ञा ये धातुएँ एकार्थक हैं। अतः अक्षका अर्थ आत्मा होता है। इस प्रकार क्षयोपशमवाले या आवरणरहित केवल आत्माके प्रति जो नियत है अर्थात् जो ज्ञान बाह्य इन्द्रिय आदिको अपेक्षासे न होकर केवल क्षयोपशमवाले या आवरण रहित आत्मा से होता है, वह प्रत्यक्ष ज्ञान कहलाता है । १. विषयपरिच्छित्तिलक्षणे प्रवृत्तिलक्षणे वा स्वकार्ये अभ्यासेतर दशापेक्षया क्वचित् स्वतः परतश्चेति निश्चीयते । - प्रमेवरस्नमाला १।१३, पु० ३१.
२. जं परवो विष्णाणं तं तु परोक्त सि भगिमसु । जवि केवलेण णादं हर्षादि हि जीवेण पञ्चवं ॥
४२४ : सीयंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
- प्रवचनसार गांधा ५८.