Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 1
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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प्रमाका करण प्रमाण है और जो वस्तु जैसी है, उसको उसी रूपमें जानना प्रमा है। करणका अर्थ सापकसम है। एक अर्थको सिद्धि में अनेक सहयोगी होते हैं, किन्तु सभी करण नहीं कहलाते हैं । फलकी सिद्धिमें जिसका व्यापार अध्यवाहित होता है, वही करण कहलाता है। यथा---लिखनेमें कलम और हाथ दोनों चलते हैं, किन्तु करण कलम ही कहलाती है, हाय नहीं। क्योंकि लिखनेका निकटतम सम्बन्ध लेखनीसे है। हाथका सम्बन्ध निकटतम नहीं है। व्याकरणकी भाषामें हाथको साधक और लेखनीको साधकतम कहा जा सकता है।
प्रमाणके इस लक्षणमें सामान्यतः कोई विप्रतिपत्ति नहीं है । विप्रतिपत्तिका विषय तो केवल 'करण' शब्द है। अन्य दर्शनों में करणको मान्यता विभिन्न प्रकार है । बौद्धदर्शन सारूप्य और योग्यताको करण मानता है, तो नैयायिक दर्शन सन्निकर्ष और ज्ञानको । पर यथार्थमें शान ही करण है । वस्तुके जाननेरूप व्यापारके साथ उसका निकटका सम्बन्ध है।
झान या अधिगमके साधनोंमें प्रमाण और नयकी गणना है। प्रमाण समग्र वस्तुको अखण्डरूपसे ग्रहण करता है और नय खण्डरूपसे । प्रमारूप क्रिया चेतन है । अतः उसमें साधकतम उसीका गुण ज्ञान ही हो सकता है।
यह निर्विवाद सत्य है कि जाननरूप क्रियाका अव्यवहित करण ज्ञान हो है । अतएव प्रतीतिका करण चेतनरूप ज्ञान ही हो सकता है, अन्य जहादि पदार्थ नहीं । जिस प्रकार अन्धकारको निवृत्तिमें दीपक ही माधकसम है, तेलबत्ती और दीया आदि नहीं। उसी प्रकार जाननेरूप क्रियाने साधकत्तम ज्ञान है, ज्ञानको उत्पादक सामग्रो अवश्य इन्द्रिय और मन आदि हैं।
ज्ञानका सामान्य धर्म है अपने स्वरूपको जानते हुए पर-पदार्थको जानना । ज्ञान अवस्थाविशेषमें 'पर' को जाने या न जाने, पर अपने स्वरूपको तो वह अवश्य जानता है। ज्ञान प्रमाण हो, संशय हो, विपर्यय हो या अनध्यवसाय हो, यह बाह्य अर्थमें विसंवादी होनेपर भी 'स्व' स्वरूपको अवश्य जानता है और 'स्व' स्वरूपके सम्बन्धमें अविसंवादी होता है। यदि ज्ञानको 'स्व' स्वरूपका ज्ञाता न माना जाय, तो वह 'पर' अर्थका बोधक भी नहीं हो सकता है । जो ज्ञान अपने स्वरूपका प्रतिभास करने में असमर्थ है, वह परका अवबोधक कैसे हो सकता है ? 'स्व' स्वरूपकी दृष्टिसे तो सभी मान प्रमाण हैं। प्रमाणता और अप्रमाणताका विभाग बाझ अर्थकी प्राप्ति और अप्राप्तिसे सम्बद्ध है। स्वरूपकी दृष्टिसे तो कोई ज्ञान न प्रमाण है और न प्रमाणाभास । प्रमाणस्वरूपका विकास
प्रमाणके स्वरूपका विकास निरन्तर होता रहा है । आरम्भमें आत्मज्ञानको ४२२ : तीषकर महावीर और उनकी प्राचार्य-परम्परा