Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 1
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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अनुमानादिकसे अधिक नियत देश; काल और आकार रूपमें प्रचुरतर विशेषों के प्रतिभासनको वैशध माना है। दूसरे शब्दोंमें यों कहा जा सकता है कि जिस मानमें किसी अन्य शानकी सहायता अपेक्षित न हो, वह ज्ञान विशद है। जिस प्रकार अनुमान आदि शान अपनी उत्पत्तिमें हेतु, व्याप्ति-स्मरण आदिको अपेक्षा रखते हैं, उसी प्रकार प्रत्यक्ष अपनी उत्पत्तिमें अन्य किसी शानकी आवश्यकता नहीं रखते।'
सारांश यह है कि जिस शानमें अभ्य किसीका व्यवधान नहीं है, वह प्रत्यक्ष है और जिसमें अन्यका व्यवधान पाया जाता है उसे परोक्ष कहा जाता है। इन्द्रिय और मनोजन्य ज्ञानको संव्यवहार प्रत्यक्ष माना है। लोकव्यवहारमें इसे प्रत्यक्ष कहा भी गया है। यों तो आध्यात्मिक दृष्टिसे ये सान परोक्ष ही हैं। मतिझानके मति, स्मृति, संझा, चिन्ता और अभिनिबोष इन पर्यायोंका निर्देश मिलता है। इनमें मसि इन्द्रिय और मनसे उत्पन्न होनेवाला ज्ञान है। इसकी उत्पत्तिमें शानान्तरकी आवश्यकता नहीं होती, पर स्मृति, संज्ञा, चिन्ता आदि शानों में पूर्वानुभव, स्मरण, प्रत्यक्ष, लिवन एवं पाशि-मरा आदि का न्तरोंकी अपेक्षा रहता है। इसी कारण इन्हें परोक्ष कहा जाता है। लोकमें प्रसिद्ध इन्द्रियप्रत्यक्ष और मानसप्रत्यक्षका अन्तर्भाव सांव्यवहारिक प्रत्यक्षमें किया जा सकता है।
साध्यवहारिक प्रत्यक्ष
मान आत्मामें समाहित रहता है और आत्मापर कर्मका आवरण पहा रहता है, जिससे शानका स्पष्ट आभास नहीं होता। कर्मका आवरण जितने अंशमें हटता जाता है, उतने ही अंशमें ज्ञानका प्रादुर्भाव होता जाता है। यों तो आत्माका समस्त ज्ञान कभी भी बात नहीं होता। यतः मानके अभावमें आत्माका अस्तित्व ही सिद्ध नहीं हो पाता । अतएव आवरणके क्षयोपशमानुसार ज्ञानकी उत्पत्ति होती है।
सांव्यवहारिक प्रत्यक्षके भी दो भेद माने जा सकते हैं:-१. इन्द्रिय सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष और २. अनिन्द्रियसाव्यवहारिक प्रत्यक्ष । अनिन्द्रियप्रत्यक्ष केवल मनसे उत्पन्न होता है, पर इन्द्रियप्रत्यक्षमें इन्द्रियोंके साथ मन भी कारण रहता है । इन्द्रियसांव्यवहारिक प्रत्यक्षको चार भागोंमें विभाजित किया जा सकता है:-१. अवग्रह, '२. ईहा, ३. अवाय और ४.धारणा। १. अनुमानाद्यतिरेकेण विशेषप्रतिभासनम् । तद् वैशद्य मतं बुझेरवंशधमतः परम् ।। -लषीयस्त्रय, कारिका ४.
तीर्थकर महावीर और उनकी देशना : ४२७