Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 1
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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प्रत्यक्ष-परीक्षप्रमाण : सामान्य निरूपण
पुरातन मान्यतामें मतिज्ञान और श्रुतज्ञानको परोक्ष एवं स्मति, संज्ञा, चिन्ता और अभिनिबोधको मति ज्ञानका पर्याय कहा गया है । अतएव आगमकी शब्दावली में सामान्यरूपसे स्मृति, संज्ञा---प्रत्यभिज्ञान, चिन्ता-तर्क, अभिनिबोध अनुमान और श्रुत--आगमको परोक्ष मानने का विधान है। इन्द्रिय और मनसे उत्पन्न होनेवाला प्रत्यक्ष- केवल मतिज्ञानको परोक्ष मानने में लोकविरोध आता है, क्योंकि इन्द्रियों द्वारा भी वस्तुओका प्रत्यक्ष दर्शन होता है। अतः इन्द्रिय और मनसे गृहीत होनेवाले पदार्थोके ज्ञानको परोक्ष किस प्रकार कहा जाय? इस समस्या के समाधान हेतू मति, स्मति, चिन्ता आदि ज्ञानोंको शब्दयोजनाके पहले सच्यिवहारिक प्रत्यक्ष और शब्द-योजनाके पश्चात उन्हीं ज्ञानोंको श्रुत माना जा सकता है। इस प्रकार मतिज्ञानको परोक्षकी सीमामें सम्मिलित करनेपर भी उसके एक अंशको सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष माना जा सकता है । जो ज्ञान अपनी उत्पत्तिमें किसी दूसरे ज्ञानको अपेक्षा रखता हो, अर्थात् जिसमें ज्ञानान्तरका व्यवधान हो, वह ज्ञान अविशद है। पांच इन्द्रिय और मनके व्यापारसे उत्पन्न होनेवाल इन्द्रियप्रत्यक्ष और अनिन्द्रियप्रत्यक्ष अन्य किसी ज्ञानान्तरको अपेक्षा नहीं रखनेके कारण अंशतः विशद होनसे प्रत्यक्ष हैं । जब कि स्मरण अपनी उत्पत्तिमें पूर्वानुभवको, प्रत्यभिज्ञान अपनी उत्पत्तिम स्मरण और प्रत्यक्षकी तर्फ अपनी उत्पत्तिमें स्मरण, प्रत्यक्ष और प्रत्यभिज्ञानकी; अनुमान अपनी उत्पत्तिमें लिङ्गदर्शन और व्याप्तिस्मरणको तथा श्रुतझान अपनी उत्पत्तिमें शब्द-श्रवण और संकेत-स्मरणको अपेक्षा रखते हैं। अतएव स्मरण, प्रत्यभिज्ञान, तक, अनुमान और आगम ये ज्ञान झानान्तर सापेक्ष होने के कारण अविशद अर्थात् परोक्ष हैं।
मतिज्ञानके भेद ईहा, अवाय और धारणा ज्ञान अपनो उत्पत्तिमें पूर्व-पूर्वकी प्रतीतिकी अपेक्षा तो रखते हैं, पर नवोन-नवीन इन्द्रियव्यापारसे उत्पन्न होते हैं और एक ही पदार्थको विशेष अवस्थाओंको ग्रहण करते हैं ! अतः किसा भिन्नविषयक ज्ञानसे व्यवहित नहीं होने के कारण सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष ही हैं। एक ही ज्ञान भिन्न-भिन्न इन्द्रिय-व्यापारोंसे अवग्रह आदि अतिशयोंको प्राप्त करता हुआ अनुभवमें आता है। अतः ज्ञानान्तरका व्यवधान नहीं आने पाता।
यहाँ निश्चयात्मक सविकल्पज्ञान ही प्रमाणरूपमें मान्य है और विशदज्ञान प्रत्यक्षकोटिके अन्तर्गत है। विशदसा और निश्चयपना सविकल्पकज्ञानका धर्म है और वह शानावरणके क्षयोपशमके अनुसार उसमें पाया जाता है । वस्तुतः
४२६ : तीर्थकर महावीर और उनको आचार्य-परम्परा