Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 1
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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उसी प्रकारके इष्ट था अनिष्ट पुद्गलोंको द्रव्यमन ग्रहण करता चलता है। मनरूपमें परिणत हुए अनिष्ट पुद्गलोंसे शरीरको हानि होती है और मनरूपमें परिणत इष्ट पुद्गलोंसे शरीरको लाभ पहुँचता है । इस प्रकार शरीरपर मनका प्रभाव सिद्ध होता है ।
यह ध्यातव्य है कि मनका शारीरिक शानतन्तुके केन्द्रोंके साथ निमित्तनैमित्तिक-सम्बन्ध है । जबतक ज्ञानतन्तु प्रौढ़ नहीं होते, तबतक पूरा बौद्धिक विकास नहीं होता है । वस्तुओंकी शानप्राप्तिके लिए मन और शरीर इन दोनोंका प्रौढ़ होना आवश्यक है ।
संक्षेपमें ज्ञानोत्पत्तिके प्रमुख दो साधन है:-(१) इन्द्रिय और (२) मन | सग्निकर्ष-विचार ___ अर्थका ज्ञान करानेमें इन्द्रिय और पदार्थका सन्निकर्ष कारण नहीं है । जो ज्ञानोत्पत्तिकी यह प्रक्रिया मानते हैं कि आत्मा मनसे सम्बन्ध करती है, मन इन्द्रियसे और इन्द्रिय अर्थसे, वह समीचीन नहीं है । यतः बस्तुका ज्ञान कराने में सन्निकर्ष सांधकतम नहीं है । जिसके होनेपर ज्ञान हो और नहीं होनेपर न हो, वह उसमें साधकतम माना जासा है, पर सन्निकर्षमें यह बात घटित नहीं होती। कहीं-कहीं सन्निकर्षके होनेपर भी ज्ञान नहीं होता। घटकी तरह अकाश आदिवे. साय चक्षुका संयोग रहता है, फिर भी आकाशका ज्ञान नहीं होता। अत: जो जहाँ बिना किसो व्यवधानके कार्य करता है, वही वहां साधकतम होता है। यथा-घरमें स्थित पदार्थोंको प्रकाशित करने में दीपक । ज्ञान ही एक ऐसा हेतु है, जो बिना किसी व्यवधानके अपने विषयको जानता है। अतः ज्ञानोत्पत्तिमें क्षयोपशमजन्य शक्ति ही कारण है, सन्निकर्ष नहीं ।
यथार्थतः ज्ञाताको अर्थको ग्रहण कर सकनेको शक्ति या योग्यता ही वस्तुका ज्ञान कराने में साधकतम है और यह योग्यता 'स्व' और 'अर्थ' को ग्रहण करनेको शक्तिका नाम है। ज्ञानकी उत्पत्ति तभी होती है, जब ज्ञाताम उस अर्थको ग्रहण करनेकी शक्ति रहती है। अतएव शक्तिरूप योग्यता ज्ञानोत्पत्तिमें साधकतम है और ज्ञान 'स्व' तथा 'अर्थ' की परिच्छित्ति करानमें साधकसम है।
यह मान्यता भी सदोष है कि इन्द्रिय जिस पदार्थस सम्बन्ध नहीं करती, उसे नहीं जानती, क्योंकि वह कारक है, यथा बढ़ईका वसुला लकड़ोसे दूर रहकर अपना काम नहीं करता। सभी जानते हैं कि स्पर्शन इन्द्रिय पदार्थको छूकर ही जानती है, विना स्पर्श किये नहीं। यह सिद्धान्त समस्त इन्द्रियांके ४१८ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आनार्य-परम्परा