Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 1
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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आमाका निवास रहा है। एक शरीर छोड़ा तो दूसरा प्राप्त हो गया, दूसरा छोड़ा तो तीसरा प्राप्त हो गया। एक शरीरको त्यागकर दूसरे शरीरकी ओर जाते समय विपने तेजस को कार्यष्ट शरीर साथ रहते हैं । संसारी आत्मा के ऐसा एक भी क्षण नहीं है, जब वह बिना किसी भी प्रकारके शरीरके संसारावस्था में स्थित रही हो । अतः शरीर आत्मा के साथ बद्ध नोक है । अबद्ध नोकर्मी के अन्तर्गत धन, भवन, परिवार, स्त्री-पुत्रादि सदा साथ तो रहते हैं, पर वे सम्पृक्त नहीं हैं। अतएव आत्मा और कर्मके बन्धका, कर्मफलका एवं कर्म-बन्धनसे छूटनेका विचार करना आवश्यक है ।
कर्मस्वरूप
आत्मा अनादि कालसे कर्मबद्ध है । यह स्थूल शरीर और सूक्ष्म कर्म - शरीरसे सम्बद्ध हैं । इसके ज्ञान, दर्शन, सुख, वोर्य आदि गुण बन्धके कारण विकृत हो रहे हैं । जोव और पुद्गलका बन्ध अनादिसे है और यह जीवके राग-द्वेष आदि भावोके कारण होता है । यह केवल संस्कारमात्र नहीं है । किन्तु वस्तुभूत पदार्थ है । इस विश्वमें पुद्गलको तेईस वर्गणाएँ व्याप्त हैं । इन वर्गणाओं में एक कार्मण वर्गणा भी हैं, जो सर्वत्र विद्यमान है । यह कार्मणवर्गणा ही राग-द्वेषसे युक्त जीवको प्रत्येक मानसिक, वाचनिक और कायिकक्रिया के साथ एक द्रव्यके रूपमें जीवमें आती है, जो उसके राग-द्वेषरूप भावोंका निमित्त पाकर जीवसे बँध जाती है और समय आनेपर शुभ और अशुभ फल देती है । सारांश यह है कि जब राग-द्वेषसे युक्त आत्मा अच्छे या बुरे कामों में प्रवृत्त होती है, तब कर्मरूपी रज ज्ञानावरणादि रूपसे उसमें प्रवेश करता है ।' अतः स्पष्ट है कि कर्म एक मूर्त पदार्थ है, जो जीवकी राग-द्वेषमोहरूप परिणतिके कारण बन्धको प्राप्त होता है ।
कमंकी पौद्गलिकता
कर्म न संस्काररूप है, न वासनारूप हो । यह तो पौद्गलिक है । यह जीवात्माके आचरण, पारतन्त्र्य और दुःखोंका हेतु है, गुणोंका विघातक है । अतएव यह आत्माका गुण नहीं हो सकता । जिस प्रकार बेड़ीसे मनुष्य बंधता हैं, सुरापानसे पागल बनता है और क्लोरोफॉर्मसे बेसुध होता है। ये सब
१. परिणमदि जदा अप्पा सुहम्हि असुहम्हि रागदोसजुदो ।
वं पविसदि
कम्मरयं
मागावरणादिमाह ॥
- प्रवचनसार, संयतत्त्वज्ञापना, भाषा १८७
तीर्थंकर महावीर और उनकी बेना : ३७९