Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 1
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
View full book text
________________
शरीरको वृद्धि और पुष्टि होने लगती है। योनियोंके मल भेद नौ हैं और उत्तर भेद चीरासी लाख हैं:-(१) सचित्त, (२) शीत, (३) संवृत, (४) अचित्त, (५) उष्ण, (६) विवृत, (७) सचित्तावित्त, (८) शीतोष्ण और (९) संवृत्तविवृत।
जीवप्रदेशों में अधिष्ठित योनि सचित्त योनि है। जीवप्रदेशोंसे अधिष्ठित न होना अचित्त योनि है । जो योनि कुछ भागमें जोव प्रदेशोंसे अधिष्ठित हो
और कुछ भागमें जोवप्रदेशोंसे अधिष्ठित न हो, वह मिश्च योनि है। शीत स्पर्शवाली शीत योनि, उष्ण स्पर्शवाली उष्ण योनि और मिश्रित स्पर्शवाली मिश्र योनि होती है । ढकी योनिको संवृत, सुलीको विवृत और कुछ ढको तथा कुछ खुलीको संवृतविवृत्त योनि कहते हैं। योनि और जन्ममें आधार-बाधेयभावका सम्बन्ध है।
शरीर पाँच प्रकारके होते हैं:-(१) औदारिकशरीर (२) वैक्रियिकशरीर, (३) आहारकशरीर, (४) तेजसशरीर और 1५) कार्मणशरीर । ये शरीर उत्तरोत्तर सूक्ष्म होते गये हैं । तैजस और कार्मण शरीर अप्रतिघाति है-न तो अन्य पदार्थों को रोकते हैं और न अन्य पदार्थो के द्वारा इनका अवरोष होता है। ये दोनों अनादिकाल से आत्मासे सम्बद्ध हैं। समस्त संसारी जीवोंके ये दोनों शरीर पाये जाते हैं । औदारिकशरीर गर्भ और सम्मूछन जन्मसे उत्पन्न होता है, वैक्रियिक शरीर उपपाद जन्मसे, तैजस शरीर लब्धिके निमित्तसे और अहारक शरीर शुभ, विशुद्ध एवं व्याघात रहिस। यो शरीर बनाता मारत हो सकते हैं, पर शरीरनामकर्मके मुख्य भेदोंकी अपेक्षा विचार करनेसे शरीरके पांच ही भेद हैं । स्थूल शरीर औदारिक कहलाता है। छोटा, बड़ा, हल्का भारी आदि अनेक रूपोंको प्राप्त होनेवाला शरीर क्रियिक कहा जाता है । सक्षम पदार्थों का निर्णय करनेके लिए प्रमत्तगुणस्थानवाले मुनिके मस्तिष्कसे निकलनेवाला एक हाथ प्रमाण शुभ पुतला आहारक शरीर है । तेजोमय शुक्ल प्रभाववाला तेजस शरीर और कर्मो का समूह कामण शरीर होता है। लोकस्वरूप
आकाशके जितने भागमें जीव, पुद्गल आदि षड्द्रव्य पाये जाये, वह लोक है' और उसके चारों ओर अनन्त अलोक है। इस अनन्त आकाशके मध्यमें १. धम्माऽधम्मा कालो पुग्गल जीवा य संति जावदिये । आमासे सो लोगो ततो परदो अलोगुप्तो॥
-द्रव्यसंग्रह-गाषा, २०, धर्माधर्मकालपुद्गलजीवाश्च सन्ति यावत्याकाशे स लोकः । तथा चोक्तम्- लोक्यन्ते
३९६ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा