Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 1
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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पुरातन शरीरको छोड़कर मृत्युके अनन्तर नया शरीर आत्मा धारण करती है। कर्मसिद्धान्तके अनुसार यह जन्म-मरणकी परम्परा अनादिकालसे चलो आ रही है।
वस्तुतः प्राणोके शरीर छोड़नेपर उसके जीवनभरके विचार, वचन-व्यवहार और अन्य प्रकारके संस्कार बात्मापर और आत्मासे चिरसंयुक्त कामंण-शरीरपर पड़ते हैं और इन संस्कारोंके कारण ही सूक्ष्म कार्मण शरीर द्वारा आरमा नूतन जन्म ग्रहण करनेका अवसर प्राप्त कर लेती है। अर्थात् आत्मा पुराने शरीरके नष्ट होते ही अपने सूक्ष्म कार्मण-शरीरके साथ उस स्थान तक पहुंच जाती है। इस क्रिया में प्राणीके शरीर छोड़नेके समयके भाव और प्रेरणाएं बहुत कुछ काम करती हैं । एक बार नया शरीर धारण करनेके बाद उस शरीरकी स्थिति तक प्रायः समान परिस्थितियां बनी रहने की संभावना रहती है।
सारांश यह है कि आस्मा परिणामी होनेके कारण प्रतिसमय अपनी मन, वचन और कायकी क्रियाओस उन-उन प्रकारके शुभ और अशुभ मंस्कारोंमें स्वयं परिणत होती जाती है और वातावरणको भी उसी प्रकारसे प्रभावित करती है । ये आत्म-संस्कार अपने पूर्व बद्ध कार्मण शरीर में कुछ नये कर्मपरमाणुओंका सम्बन्ध करा देते हैं, जिनके परिपाकसे वे संस्कार आत्मामें शुभ या अशुभ भाव उत्पन्न करते हैं । आत्मा स्वयं इन संस्कारोंका कर्ता और स्वयं ही उनके फलोंका भोक्ता है। जब आत्माकी दृष्टि अपने मल स्वरूपको ओर हो जाती है, तो शनैः शनैः कुसंस्कार नष्ट होकर स्वरूपस्थितिरूप मुक्ति प्राप्त कर लेता है । इस शरीरको धारण किये हुए भी स्वानुभूतिकर्ता, पूर्ण वीतराग और पूर्णज्ञानी बन जाता है।
स्वभावतः आत्मामें कर्तत्व और भोक्तत्व शक्तियाँ विद्यमान है। यह स्वयं अपने संस्कारों और बद्धकर्मों के अनुसार असंख्य जीव-योनियोंमें जन्म-मरणके भारको ढोता रहता है । आत्मा सर्वथा अपरिणामी और निर्लिप्त नहीं है, किन्तु प्रतिक्षण परिणामी है । वैभाविकी शक्ति के कारण अशुद्ध परिणमनके फलस्वरूप आत्मा जन्म-मरणकी परम्पराका आश्रय ग्रहण करतो है। स्वाभाविक अवस्थाको प्राप्त करनेपर मुक्ति हो जाती है । ___आस्माके पुनर्जन्ममें अन्य कोई व्यवस्थापक, नियन्त्रक या नियोजक नहीं है, आरमा स्वयं ही परिणमनशीलताके कारण एक शरीरको त्यागकर अन्य शरीर धारण करती है । जीव पूर्व शरीर त्याग करके नूतन शरीरको ग्रहण करनेके लिए गति करता है. यह गति मोड़ेवाली होती है। अन्तरालमें कार्मणशरीर रहता है और कार्मणवर्गणाओंका ग्रहण भी होता है। अत: जीवके आत्म-प्रदेशोंके परिस्पन्दमें कार्मणवर्गणाएँ निमितरूप होती हैं । ३९४ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा