Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 1
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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सर्व चिरतिके धारण करनेमें बाषा होती है। संज्वलन क्रोष, मान, माया, लोभका उदय यथाख्यातपरिणतिको प्राप्त करनेमें बाधक है !
जिनका उदय नरक, सियंच, मनुष्य और देवपर्यायमें जीवन व्यतीत करनेमें निमित्त हो, वे क्रमशः नरकायु, तिर्यंचायु, मनुष्यायु और देवायु हैं ।
जिसका उदय जीवके नारकवादिरूप भावके होने निमित्त है, वह ि नामकर्म है । इसके नरकगति, तियंचगति, मनुष्यगति और देवगति ये चार मेद है। एकेन्द्रिय द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय आदि जातियोंमें उत्पन्न होने में निमित्त कर्म जातिकर्म कहलाता है। ओदारिक आदि शरीरोंको प्राप्त कराने में निमित्त शरीरनामकर्म है | शरीरके अंग और उपांगों के होने में निमित्त आंगोपांग नामकर्म है। जिस कर्मका उदय शरीरके लिये प्राप्त हुए पुद्गलोंका परस्पर बन्धन कराने में निमित्त है, वह बन्धन नामकर्म है । संघात नामकर्मके उदयसे प्राप्त हुए पुद्गलोंका बन्धन छिद्ररहित होकर एक-सा हो जाता है । जिस नामकर्मका उदय शरीरकी आकृति बननेमें निमित्त है, वह संस्थाननामकर्म है । संस्थाननामकर्मके कारण ही शरीर समचतुस्र, छोटा, बड़ा, कुबड़ा, लम्बा, बीना आदि होता है। संहनननामकर्मके उदयसे हाड़ और संधियोंका बन्ध होता है । इस कर्मके निमित्त से हो शरीरकी हड्डियाँ मजबूत, दृढ़, कोमल, कठोर और कमजोर होती हैं। शरीरगत शीत आदि आठ स्पर्श, तिक्त आदि पाँच रस, सुरभि आदि दो गंध और श्वेत आदि पाँच वर्णके होनेमें निमित्तभूत कर्म अनुक्रमसे स्पर्श, रस, गंध और वर्णं नामकर्म कहलाते हैं ।
जिस कर्मका उदय विग्रहगतिमें जीवका आकार पूर्ववत् बनाये रखने में निमित्त है, वह आनुपूर्वी नामकर्म है। प्रशस्त और अप्रशस्त गतिका निमित्तभृत कर्म विहायोगतिनामकर्म है । अगुरुलघुनामकर्मके निमित्तसे शरीर न तो भारी होता है और न हल्का होता है । जिस कर्मका उदय शरीरके अपने ही अवयवोंसे अपना घात होने में निमित्त है, वह उपघात नामकर्म है। परघात नामकर्मके उदयके निमित्तसे दूसरोंका घात करनेवाले अंग निर्मित होते हैं । जिस नामकर्मका उदय जीवको श्वासोच्छ्वास लेनेमें निमित्त है, वह उच्छ्वासनामकर्म है । आतप नामकर्मके निमित्तसे शरीर में प्रकाश - तेज उत्पन्न होता है । उद्योत नामकर्मके उदयसे शरीरमें शीत प्रकाश - उद्योत उत्पन्न होता है । निर्माण नामकर्मोदय के निमित्तसे शरीर के अंगोपांग यथास्थान होते हैं । जिस नामकर्मका उदय जीवके तीर्थंकर होनेमें निमित्त है, वह तीर्थंकरत्व नामकर्म कहलाता है ।
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तीर्थंकर महावीर और उनकी देशना : ३८७
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