Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 1
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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फर्म होते हैं और न विना भावकमके द्रव्यकर्म ही। इन दोनोंमें बीज-वृक्ष सन्ततिके समान कार्य-कारणभाव सम्बन्ध विद्यमान है।
द्रव्यकर्म पौद्गलिक है और भाबकर्म आत्माके चैतन्यपरिणामात्मक हैं; क्योंकि आत्मासे कथंचित् अभिन्नरूपसे स्ववेद्य प्रतीत होते हैं और वे क्रोधादि रूप हैं।'
वस्तुत: कर्मपरमाणुओंको आत्मा तक लानेका कार्य जीवको योगशक्ति और उसके साथ उनका बन्ध करानेका कार्य कषाय-जीवके राग-द्वेषरूप भाव करते हैं । जीयको परिस्पन्दनरूप योगशक्ति और रागद्वेषरूप कषाय बन्धका कारण है। करायके नष्ट हो जानेपर योगके रहने तक जीवमें कर्मपरमाणुओंका आस्रव-आगमन तो होता है, पर फषायके न होने के कारण वे ठहर नहीं सकते । उदारणार्थ योगको वायु, कषायको गोंद, आत्माको दोवाल और कर्मपरमाणुओंको धूलकी उपमा दी जा सकती है। यदि दीवाल पर गोंद लगी हो तो वायुके द्वारा उड़कर आनेवाली धूल दीवालसे चिपक जाती है, पर दीवाल स्वच्छ, चिकनी और सूखी हो, तो धल दीवालपर नहीं चिपकती, बल्कि तुरन्त झड़ जाती है। धूलका हो । अधिक में उड़कर बागा काके यमपर निर्भर है । वायु तेज होगी, तो धूल भी अधिक परिमाणमें उड़ेगी और वायु मन्द होगी, तो धूल कम परिमाणमें उड़ेगी। धूलका कम या अधिक समय तक चिपका रहना गोंद या आर्द्रताकी मात्रा पर निर्भर करता है। जितनी अधिक चिकनी चीज दीवालपर रहेगी, घल उसी चिकनाहट की मात्राके अनुसार कम या अधिक समय तक रहेगी । अतएव संक्षेपमें योग और कषाय ही बन्धक कारण हैं। बन्धके भेद
बन्धके चार प्रकार हैं:-(१) प्रकृतिबन्ध (२) प्रदेशबन्ध (३) स्थितिबन्ध और (४) अनुभागबन्ध । इनमें प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्धका हेतु योग है तथा स्थितिबन्ध और अनुभागबन्धका हेतु कषाय है । इन दोनों कारणोंसे हो कर्मका बन्ध होता है और अभाबमें नहीं। बन्ध कम और आत्माके एक क्षेत्राबगाही सम्बन्धका नाम है । जो आत्मा कषायवान है, वही कर्मोको ग्रहण कर बाँधतो है। १. द्रम्पकर्माणि जीवस्य पुद्गलात्मान्यनेकपा । __ भावकर्माणि चैतन्यविवत्मिानि भान्ति नुः ।। कोषादीनि स्ववेद्यानि कचिच्चिदभेदतः ॥
-आप्तारोक्षा, ११३-११४ ।
३८२ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा