Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 1
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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होता है । आत्मा स्वतन्त्र है और शान-दर्शनादि गुण उसकी निजी सम्पत्ति हैं । आनन्द और सौन्दर्यानुभूति उसके स्वतन्त्र अस्तित्वके सबल प्रमाण हैं। राग और द्वेषका होना तथा उनके कारण हिंसा आदिके आरम्भमें जुट जाना भौतिक यन्त्रका काम नहीं है। कोई भी यन्त्र अपने आप चले, स्वयं विगड़ जाय और बिगड़नेपर अपने-आप मरम्मत हो जाय, यह सम्भव नहीं है । अतएव इच्छा, संकल्पति और भावनाएं केवल भौतिक मस्तिष्ककी उपज नहीं है, अपितु चैतन्यके विभाव-शक्तिजन्य विकार हैं।
अवस्थाके अनुसार बढ़ना, जीर्ण होना आदि ऐसे धर्म हैं, जिनका समाधान भौसिकतासे सम्भव नहीं है। अनुभवसिद्ध कार्यकारणभावके द्वारा आरमाका स्वतन्त्र अस्तित्व सिद्ध होता है । ___ आत्माको शरीर परिणाम माननेपर भी देखनेकी शक्ति नेत्रोंमें रहनेवाले आत्म-प्रदेशों में ही नहीं, सुंघनेकी शक्ति ध्राणमें रहनेवाले केवल आत्म-प्रदेशों में ही नहीं अपितु शरीरान्तर्गत समस्त आत्म-प्रदेशोंमें ये शक्तियां समाहित रहती हैं। बात्मा पूर्ण शरीरमें सक्रिय रहती है। वह इन्द्रियोंके उपकरणों के झरोखों द्वारा गन्धादिका परिज्ञान करती है। वासनाओं आर कम-संस्कारोंके कारण आत्माको अनन्तशक्कि छिन्न-भिन्न रूपमें अभिव्यक्त होती है। जब कर्मवासनाबों और सूक्ष्म कर्म-शरीरका सम्पर्क छूट जाता है, तब यह आत्मा अपने अनन्त चेतन्य-स्वरूपमें लीन हो जाती है। उस समय इस आरमाके प्रदेश अन्तिम शरीरके आकार रह जाते हैं। क्योंकि उनके फैलने और सिकुड़नेका कारण कर्म-संस्कार नष्ट हो चुका है। अतएव आत्म-प्रदेशोंका अन्तिम शरीरके आकार रह पाना स्वाभाविक और युक्ति-संगत है। व्यापक एवं अणु बात्मवाद
वात्माको अमूर्त और व्यापक माना जाता है | व्यापक होनेपर भी शरीर बोर मनके सम्बन्धसे शरीरावच्छिष आत्म-प्रदेशोंमें जानादि विशेषगुणोंकी उत्पत्ति होती है । अमूतं होनेसे यह आत्मा निष्क्रिय और गतिहीन है । शरीर और मनके गतिशील होनेसे सम्बद्ध आत्म-प्रदेशों में ज्ञानाधिककी अनुभूति होती है। व्यापक आत्मवादमें निम्नलिखित दोष घटित होते हैं।
(१) समस्त आत्माओंका सम्बन्ध समस्त शरीरोंके साथ होनेसे अपने-अपने सुख-दुःख वीर भोगका नियम घटित नहीं होगा।
(२) एक अखण्ड द्रव्यमें सगुण और निर्गुणके भेद सम्भव नहीं हैं । (३) अमूर्तत्त्व हेतुके द्वारा आत्माको व्यापक सिद्ध नहीं किया जा सकता
तीर्थकर महावीर और उनकी देषना : ३३७