Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 1
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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यतः एक द्रव्य द्वारा अपने शुद्धरूपमें एक ही प्रकारको क्रिया सम्भव मानी जा सकती है। क्रियाओं के परस्पर भिन्न होनेपर तो कारण और साधनभूत सामग्रीको भिन्न- भिन मानना पड़ेगा । अतएव लोकाकाशमें गमन के लिए धर्मद्रव्य कारण, स्थिति के लिए अधर्मद्रव्य और रुकावटके लिए आकाशद्रव्य साधन है। आत गति पील पदार्थ गायक है. जहांतक उन तत्त्वोंकी सत्ता पायी जाती है, उसके बागे यह उनके गमनमें रुकावट उत्पन्न करता है ।
आकाश समस्त जीवादि द्रव्योंको स्थान देता है अर्थात् ये समस्त जीवादि द्रव्य आकाशमें युगपत् पाये जाते हैं। यों हो पुद् गलादि द्रव्यों में भी परस्परमें हीनाधिक रूपमें एक दूसरेको अवकाश देते देखा जाता है, किन्तु समस्त द्रव्योंको एक साथ अवकाश देनेवाला आकाश ही सम्भव है । इसके अनन्त प्रदेश हैं। इसके मध्यभाग में चौदह राजू ऊंचा पुरुषाकार लोक है, इसके कारण हो आकाश लोकाकाश और अलोकाकाश रूप में विभाजित है । लोकाकाश असंख्यात प्रदेशी है और अलोकाकाश अनन्त ।
यह निष्क्रिय और अमूर्तिक है। अवकाशदान इसका असाधारण गुण है । दिद्रव्य स्वतन्त्र नहीं है । आकाश-प्रदेशोंमें सूर्योदयकी अपेक्षा पूर्व, पश्चिम आदि दिशाओंकी कल्पना को जाती है । यह कोई पृथक् द्रव्य नहीं है । आकाशप्रदेशपकियां सब ओर कपड़े में तन्तुको तरह श्रेणीबद्ध हैं ।
एक पुद्गल परमाणु जितने आकाशको रोकता है, उसे प्रदेश कहते है । इस नापसे आकाशके अनन्त प्रदेश हैं । यदि पूर्व पश्चिम आदि व्यबहार होनेके कारण दिशाको स्वतन्त्र द्रव्य माना जाय, तो पूर्वदेश, पश्चिमदेश, उत्तरदेश आदि व्यवहारोंसे 'देशद्रव्य' की सत्ता भी स्वतन्त्र स्वीकार करनी पड़ेगी। इस प्रकार प्रान्त, जिला और सहसील आदि भी पृथक द्रव्य मानने पड़ेंगे।
आकाशमें शब्दगुणकी कल्पना भी सम्भव नहीं है । शब्द पौद्गलिक है, यह पहले ही बताया जा चुका है।
आकाशको प्रकृतिका विकार भी नहीं माना जा सकता, क्योंकि एक ही प्रकृतिके घट, पट, पृथ्वी, जल, अग्नि, प्रभूति विकार सम्भव नहीं है । मूर्तिकअमूर्तिक, रूपी-अरूपी, व्यापक-अध्यापक एवं सक्रिय - निष्क्रिय आदि रूपसे विरुद्ध धर्मवाले एक ही प्रकृतिके विकार सम्भव नहीं हो सकते हैं ।
आकाश अन्य द्रव्योंके समान 'उत्पाद, व्यय और प्रौष्य' इस द्रव्य लक्षणसे मुक्त हैं और इसमें प्रतिक्षण अपने अगुरुलघुगुणके कारण पूर्वपर्यायका ३६० : तीर्थंकर महावीर बौर उनकी आचार्य-परम्परा