Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 1
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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प्रत्येक आत्माका मौलिक स्वरूप एक होनेपर भी संसारकी आत्माओं में जो भिन्नता दृष्टिगोचर होती है, वह औपपाधिक है। कर्मो के आवरणकी तारतम्यताके कारण ही आत्माओंमें पारस्परिक भेद दिखलायी पड़ता है । आवरणकी तारतम्यता अनन्त प्रकारको हो सकती है, अतः आत्माके स्वाभाविक गुणोंके विकास और ह्रासकी अवस्थाएँ भी अनन्त हैं।
स्वानुभवसे आत्माके शान-दर्शन-चैतन्यरूप अस्तित्वको सिद्धि होती है। पदार्थों को जाननेवाली आत्मा है, इन्द्रियाँ नहीं । इन्द्रियाँ तो केवल साधनमात्र हैं। आत्माके चले जानेपर इन्द्रियाँ कुछ भी नहीं जान पातीं। इन्द्रियोंके नष्ट हो जानेपर भी उनके द्वारा हुए जिम्मका गात्मक कारण हता है। ____ जड़ और चेतनमें अन्त्यन्ताभाव है, अतः त्रिकालमें भी आत्मा अचेतन नहीं हो सकती। जिस वस्तुका विरोधी तत्त्व न मिले, उसका अस्तित्व सिद्ध नहीं होता । चेतनका विरोधी अचेतन पदार्थ है, अतः चेतनका अस्तित्व सिद्ध है।
जिस प्रकार आकाश तोनों कालोंमें अक्षय, अनन्त और अतुल होता है। उसी प्रकार आत्मा भी तीनों कालोंमें अविनाशी और अवस्थित है। इसका ग्रहण ज्ञान-दर्शन गुणके द्वारा होता है।
चैतन्य आत्माका विशिष्ट गुण है। यह आत्माके अतिरिक्त अन्य किसी पदार्थ में प्राप्त नहीं होता । अतः आत्मा स्वतन्त्र द्रव्य है और उसमें पदार्थके ध्यापक लक्षण अर्थक्रियाकारित्व और सत् दोनों घटित होते हैं । आत्मामें जाननेकी क्रिया निरन्तर होती रहती है। ज्ञानका प्रवाह एक क्षणके लिए भी नहीं रुकता। पास्म-भेद विकासदशाको दृष्टिसे आत्माके तीन भेद हैं:१. बहिरात्मा-मिथ्याष्टि-मिथ्यादर्शी, २. अन्तरात्मा-सम्यग्दृष्टि-सम्यग्दर्शी,
३. परमात्मा.-सर्वदर्शी-सर्वज्ञ । महिरात्मा : स्वरूप
जो मिथ्यात्वभावके कारण शरीर, इन्द्रिय, मन आदिके साथ स्त्री, पुत्र आदि पर-पदार्थोंको अपना समझता है, वह बहिराल्मा है । बहिरात्मा मिथ्यादृष्टि होता है और वह शरीर एवं इन्द्रियोंको ही आत्मा समझता है।
आत्माके ज्ञान, ध्यान और अध्ययनरूप सुखामृतको छोड़कर इन्द्रियोंके १६४ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा