Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 1
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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परमात्माके दो भेद हैं:-(१) सकलपरमात्मा और (२) निकलपरमात्मा । अथवा (१) कारणपरमात्मा और (२) कार्यपरमात्मा ।
जन्म, जरा, मरण रहित, आठ कर्म रहित, शुद्ध, ज्ञानस्वभाव, अक्षय और अविनाशी सुखका धारक, अव्याबाघ, अतीन्द्रिय, अनुपम, पुण्य-पाप रहित, नित्य, अचल एवं निरालम्ब कारणपात्या लोसा है। प्रौदमिक आणि नार भावोंके अगोचर होनेसे द्रव्यकर्म, भावकम और नोकमरूप उपाधिसे जनित विभाव गुणपर्यायोंसे रहित एवं सहज-शुद्ध परमपारिणामिकभावधारी कारणपरमात्मा
____ अष्ट कर्मोका नाश और समस्त देहादि परद्रव्योंका त्यागकर केवलज्ञानमय आत्माको प्राप्त करना कार्यपरमात्मा है। केवलज्ञान, केवलदर्शन, अनन्तसुख और अनन्तवीर्य गुण इस परमात्मामें प्रकट हो जाते हैं। सिद्धपरमेष्ठी कार्यपरमात्मा और अर्हन्तपरमेष्ठी कारणपरमात्मा कहलाते हैं।
सकलपरमात्माका अर्थ भी अर्हन्त है। यहाँ कल-शब्दका अर्थ शरीर है, जो शरीर सहित है, वह सकलपरमात्मा है और शरीर सहित होनके कारण अर्हन्त सकलपरमात्मा है । जो शरीररहित समस्त कर्मकालिमासे मुक्त है, वह निकलपरमात्मा है । शरीररहिस होनेके कारण निकलपरमात्मा कहलाते हैं !
इस प्रकार विकासक्रमकी दृष्टि से आत्मस्वरूपको अवगत कर उसकी निष्ठा करना मोक्षमार्गकी ओर अग्रसर होना है। जोयके भाव : स्वरूप और भेद
चेतन और द्रश्यके स्वभावको भाव कहते हैं। भावका अर्थ चित्तविकार, कर्मोदय सापेक्ष जीवपरिणति, गुण-पर्यायरूप अर्थ एवं विशेष आत्मपरिणति है । वस्तुतः पदार्थों के परिणामको भाव कहा जाता है। ___ आत्माकी दो अवस्थाएँ हैं:-(१) संसारावस्था और (२) मुक्तावस्था। इन दोनों प्रकारको अवस्थाओंमें आत्माकी जो विविध पर्यायें होती हैं, उनको समन्वित कर पांच भेदोंमें विभाजित किया जा सकता है। ये ही भाव अथवा आत्माके स्वतत्व' कहलाते हैं, यतः आत्माके अतिरिक्त अन्य द्रव्यमें ये नहीं पाये जाते।
(१) औपशमिकभाव-कर्मोके उपशमसे उत्पन्न होनेवाली परिणति । (२) क्षायिकभाव-कर्मोंके क्षयसे उत्पन्न होनेवाली परिणति । (३) क्षायोपशमिक-कर्मोंके क्षयोपशमसे उत्पन्न होनेवाली परिणति । (४) औदयिक-कमोकि उदयसे उत्पन्न होनेवाली परिणति ।
तीर्थकर महावीर और उनकी देशना : ३६७