Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 1
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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आवधिक और पारिवामिक ये सीन ही भाव होते हैं। चार भाव औपशमिक सम्यक्त्व, कायिक सम्यक्त्व या क्षायिक पारित्रके प्राप्त होनेपर होते हैं और पांच भाव क्षायिकसम्यग्दृष्टिके उपशमश्रेणिका आरोहण करनेपर होते हैं।
मुक्त जीवोंके क्षायिक और पारिणामिक ये दो ही भाव होते हैं। भावोंक भेद-प्रमेव
औपशमिक मायके दो भेद हैं-:(१) ओपमिक सम्यक्त्व मोर (२) ओपशभिक चारित्र।
कर्मकी दश अवस्थाओं में एक उपशान्त अवस्था है। जो कर्मपरमाणु उदीरणाके अयोग्य होते हैं, वे उपशान्त कहलाते हैं। बघःकरण आदि परिणामविशेषोंसे दर्शनमोहनीयके उपशमसे औपशमिकसम्यक्त्व और चारित्रमोहनीयके उपशमसे ओपशमिकचारित्र उत्पन्न होता है । ___ क्षायिकभावके नौ भेद हैं:-(१) केवलज्ञान, (२) केवलदर्शन, (३) नायिक दान, (४) क्षायिकलाभ, (५) क्षायिक भोग, (६) क्षायिक उपभोग, (७) क्षायिकवीर्य, (८) क्षायिकसम्यक्त्व और (९) क्षायिकचारित्र।
मानावरणके क्षयसे केवलझान, दर्शनावरणके क्षयसे केवलदर्शन, पांच प्रकारके अन्तरायके क्षयसे दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य ये लब्धियां, दर्शनमोहनोयकर्मके क्षयसे क्षायिकसम्यक्त्व और चारित्रमोहनीयकर्मके क्षयसे क्षायिकचारित्र प्रकट होते हैं। ___ क्षायोपशमिकभावके अठारह भेद है:-( १-४ ) चार ज्ञान–मति, श्रुत; अवधि और मनःपर्यय (५-७) तीन अज्ञान-कुमति, कुश्रुत और कुअवधि, (८-१२) पाँच लब्धिया-क्षायोपशमिक दान, क्षायोपर्शामक लाभ, क्षायोपशमिक भोग, क्षायोपशमिक उपभोग और क्षायोपामिक वीर्य; (१२-१५) तीन दर्शन-चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन और अवधिदर्शन; (१६) क्षायोपशमिक सम्यक्त्व; (१७) क्षायोपशमिक चारित्र एवं (१८) संयमासंयम । ___ यह ध्यातव्य है कि जिन अवान्तर कर्मोंमें देशघाति और सर्वघाति दोनों प्रकारके कर्मपरमाणु पाये जाते हैं, क्षयोपशम उन्हीं कर्मोका होता है। नोकषायोंमें देशघाति कर्मपरमाणु ही पाये जाते हैं, अतः उनका क्षयोपशम नहीं होता । तत्तत्कमके क्षयोपशमसे उपयुक्त भाव प्रकट होते हैं।
औदयिकभावके इक्कोस भेद है:-चार गति, चार कषाय, तीन वेद, मिथ्यादर्शन, अज्ञान, असंयम, असिद्धभाव और षट् लेश्याएँ । गतिनामकर्मके उदयसे नरक, तिर्यञ्च; मनुष्य और देव ये चार गतियाँ
तीर्थंकर महावीर और उनकी देशना : ३६९ २४