Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 1
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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होती हैं। कवायमोहनीयके उदयसे क्रोष, मान, माया और लोभ ये चार कषाय होते हैं । वेदनोकषायके उदयसे स्त्री, पुरुष और नपुंसक ये तीन वेद होते हैं। मिथ्यात्वमोहनीयके उदयसे मिथ्यादर्शन, मानावरणके उदयसे बनानमाव, चारित्रमोहनीयके सर्वधाति स्पर्धकोंके उदयसे असंयत भाव, सभी कर्मोदयसे असिद्ध भाव होते हैं । कषायके उदयसे अनुरंजित योगप्रवृत्तिको लेश्या कहते
__ पारिणामिक भावके तीन भेद हैं:-(१) जीवत्व, (२) भव्यत्व बोर (३) अभव्यत्व ।
जोवत्वका अर्थ चैतन्य है। यह शक्ति आत्माको स्वाभाविक है। इसमें कर्मक उदयादिकी अपेक्षा नहीं रहती, अतएव पारिणामिक भाव है। यही बात भव्यत्व और अभव्यत्वके सम्बन्धमें भी कही जा सकती है। जिस बात्मामें रत्नत्रयके प्रकट होनेको योग्यता है वह भव्य है और जिसमें इस प्रकारको योग्यताका अभाव है। वह अभव्य है।
जीवमें अस्तित्व, अन्यत्व, नित्यत्व और प्रदेशवत्व बादि अन्य पारिवामिक भाव भी पाये जाते हैं, पर जीवके असाधारण भावको दृष्टिसे उक तीन ही पारिणामिक भाव हैं।
इस प्रकार जीवके मूल भाव पाँच और अवान्तर तिरेपन होते हैं।
यह ज्ञातव्य है कि आत्माएं अखण्ड और मूलतः प्रत्येक बात्मा स्वतन्त्र समान शक्तिवाली हैं। कर्मावरणके कारण आत्माको शक्ति होनाधिक रूपमें विकसित दिखलायी पड़ती है । अजोवतस्व : स्वरूप
अजीवके सम्बन्धसे आत्मा विकृत होती है, उसमें विभाव परिणति उत्पन्न होती है, अतएव अजीवके स्वरूपको जानकारी आवश्यक है। बजीवसे ही आत्मा बघतो है, यही आत्माकी परतन्त्रताका कारण है। अबीवतत्वके अन्तर्गत धर्म, अधर्म, आकाश, काल और पुद्गल इन पाँचको गणना को जाती है। पूर्वके चार तत्व आत्माका इष्ट, अनिष्ट नहीं करते । पुद्गल द्रव्य ही बात्माके बन्धका कारण है। इसीसे शरीर, मन, इन्द्रिय, श्वासोच्छवास और वचन आदिका निर्माण होता है।
मुमुक्षुके लिए शरीरको पोद्गलिकताका झान अत्यन्त आवश्यक है। जीवनको आसक्तिका मुख्य केन्द्र यही है । आत्माका विकास प्रायः शरीराधीन है, शरीरके किसी भी अंगके बिगड़ते ही वर्तमान ज्ञानका विकास रुक जाता है ३७० : वीकर महावीर और उनकी बाचार्य-परम्परा