Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 1
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
View full book text
________________
और शरीरके नाश होनेपर वर्तमान शक्तियाँ प्रायः समाप्त हो जाती हैं, सो भी आत्माका अपना स्वतन्त्र अस्तित्व तेल-बत्तीसे भिन्न ज्योसिके समान पृथक् है ।
अतएव पुद्गलकी प्रकृतिका परिज्ञान अत्यन्त आवश्यक है, इसके यथार्ष उपयोगसे हो आत्माका विकास किया जा सकता है। आहार-विहारके उत्तेजक होनेपर पवित्र विचारोंकी उत्पत्ति संभव नहीं होती। इसलिए अशुभ संस्कार और विचारोंका तामन करने के लिए प्रबल निमित्तभत शरीरकी स्थिति आदिका परिज्ञान आवश्यक है। जिन परपदार्थो से आत्माको विरक्त होना हे और जिन्हें 'पर' समझकर उनकी छीना-झपटीकी द्वन्द्वदशासे ऊपर उठना है उनका त्याग करनेके लिए अजीव तत्वको समझना है।
बात्मा और बनारण दोनों नथ्य हैं। नोनल गुमर पायो अदिच्छिन्न समुदाय हैं। सामान्यगुणको अपेक्षा दोनों अभिन्न और विशेषगुणको अपेक्षा भिन्न हैं । आत्मा ज्ञानसे सर्वथा भिन्न भी नहीं और सर्वथा अभिन्न भी नहीं है । कथञ्चित् भिन्नाभिन्न है।
वस्तुतः शरीर और चेतन दोनों भिन्नधर्मक हैं। इनका अनादिप्रवाही सम्बन्ध है । चेतन और अचेतन चैतन्यकी दृष्टिसे अत्यन्त भिन्न हैं। अत: वे सर्वदा एक नहीं हो सकते । चेतन शरीरका निर्माता है और शरीर उसका अधिष्ठान, इसलिए दोनोंपर एक दूसरेकी क्रिया-प्रतिक्रिया होती है। यह ध्यातव्य है कि शरीरकी रचना तन-विकासके आधारपर होती है। जिस जीवके जितने इन्द्रिय-मन विकसित होते हैं, उसके उतने हो इन्द्रिय-मनके ज्ञान-तन्तु बनते हैं। वे ज्ञान-तन्तु ही इन्द्रिय एवं मानसशान के साधन होते हैं। अतएव शरीर और बात्माके सम्बन्धका परिधान और उसकी अनुभूति प्रत्येक मुमुक्षुके लिए आवश्यक है । भूत और चेतनमें अत्यन्ताभाव है-त्रिकालवर्ती विरोष है। चेतन कभी अचेतन और अचेतन कभी चेतन नहीं हो सकता है। ___ आशय यह है कि जीवके लिए उपयोगी आत्म और अनात्म दोनों ही तत्व हैं, यत: जीव और पुद्गलका बन्ध अनादिसे है और यह बच जीवके अपने राग-द्वेष आदिके कारण उत्तरोत्तर बढ़ता है। अब ये रागादिभाव क्षीण होते हैं, सब यह बन्ध आत्मामें नये विभाव उत्पन्न नहीं कर सकता और शनैः शनै: या एक ही झटकेसे ही समाप्त हो जाता है । आस्रवतस्थ: स्वल्पविवेचन
जीवके द्वारा मन, वचन और कायसे जो शुभाशुभप्रवृत्ति होती है, उसे भावास्रव और उसके निमित्तसे विशेष प्रकारको पुद्गलवर्गणाएँ पाकर्षित
तीपंकर महापौर और उनकी देशना : ३१