Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 1
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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उपजाऊ बनानेके कारण कषाय कहलाती है। दूसरी व्युत्पत्तिके अनुसार जो देशचारित्र और सकलचारित्रका घात करती है, वह कषाय है । ये चारों आत्माकी विभावदशाएं हैं। क्रोधकषाय द्वेषरूप है और है द्वेषका कारण एवं कार्य । मान क्रोधको उत्पन्न करनेके कारण द्वेषरूप है । माया लोभको जागृत करनेसे रागरूप है तथा लोभ भी राग है। इस प्रकार राग-द्वेष और मोहको त्रिपुटीमें कषायका भाग मुख्य है। ये कषाएं बड़ी प्रबल हैं। लोभ कषाय तो बड़े-बड़े त्यागियों को भी विलित कर देती हैं। कषायका त्याग किये बिना बात्मचेतना निर्मल नहीं हो सकती। ये इस प्रकारके विकार हैं, जो निरन्तर बास्माको कलुषित बनाते हैं।
वस्तुतः ये विकार ही आत्माके अन्तरंग शत्रु हैं। इनके हटानेसे आत्म-दृष्टि प्राप्त होती है। कषायके २५ मेद हैं ।सोलह कषाय और नव नो-कषाय हैं । सोलह कषायोंके अन्तर्गत अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ, अप्रत्याख्यान क्रोध, मान, माया, लोभ, प्रत्याख्यान क्रोध, मान, माया, लोभ और संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोमको गणना है। इन कषायोंके अतिरिक्त हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रोवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेदकी गणना नोकषायोंमें है। इन कषायोंके कारण हो आत्मामें विकारपरिणति उत्पन्न होती है । योग
मन, वचन और कायके निमित्तसे आत्म-प्रदेशोमें होनेवाले परिस्पन्दकियाको योग कहते हैं। आत्मा सक्रिय है। उसके प्रदेशोंमें परिस्पन्द होता है। अतः मन, वचन और कायके निमित्तसे सदा उसमें क्रिया होती रहती है । जिस प्रकार लोहेका गर्म गोला पानी में डाल देनेपर चारों ओर जलीय परमाणुओंका आकर्षण करता है, उसी प्रकार योगके कारण आत्मा सभी ओरसे कर्मवर्मणाबोंको खींचती है। योग कर्मपरमाणुओको लानेका कार्य करता है और कवाय उन कर्मपरमाणु बोंको सम्बद्ध कराती है। योगके पन्द्रह भेद हैं:
(२) सत्य मनोयोग- समीचीन पदार्थको विषय करनेवाला मनोयोग । (२) असत्य मनोयोग---सत्यसे विपरीत मिथ्या पदार्थको विषय करनेवाला । (३) उभय मनोयोग-सत्य और मिथ्या दोनों प्रकारका मन-दोनों प्रकार
के पदार्थीको विषय करनेवाला मन | (४) अनुमय मनोयोग-न सत्य और न मृषा । (५) सत्य वचनयोग-सत्यार्यके वाचक वचन । (६) बसत्य वचनयोग-असत्यार्थक वाचक वचन । (७) उभय वचनयोग-उमयापक वाचक वचन ।
तीपंकर महावीर और उनकी देशना : ३७५