Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 1
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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अविरति
सदाचार या चारित्रधारण करने की ओर रुचि या प्रवृत्ति नहीं होना अविरति है । कषायके तीव्रोदय से देशचारित्र और सकलचारित्रको धारण करनेकी प्रवृत्ति उत्पन्न नहीं होती है | अविरतिके पांच व बारह भेद हैं :- (१) हिंसा, (२) असत्य, (३) स्तेय - चोरी, (४) अब्रह्म और (५) परिग्रह - इच्छा अथवा (१-६ ) इन्द्रियों के और मनके विषयोंमें प्रवृत्ति, (७) पृथ्वीकाधिक प्राणियों की हिंसा, (८) जलकायिक प्राणियोंकी हिंसा, (९) तेजकायिक प्राणियों की हिंसा, (१०) वायुकायिक प्राणियोंकी हिंसा, (११) वनस्पतिकायिक प्राणियोंकी हिंसा और (१२) सकायिक प्राणियोंकी हिंसा |
प्रभाव
कुशल कर्मो में अनादर होना प्रमाद है । साधारणतः असावधानीको प्रमाद कहा जाता है | पंचेद्रियविषयोंमं लीन होनेसे, राजकथा, चोरकथा, स्त्रीकथा और भोजनकथा आदि विकथाओं में रस लेनेसे; क्रोध, मान माया और लोभ इन चार कषायों से कलुषित होनेसे तथा निद्रा और प्रणय में मग्न होनेसे कुशल कमोंके प्रति अनादरभाव उत्पन्न होता है और इसी अनादरसे आत्मा के प्रति अनास्था और हिंसाकी भूमिका निर्मित हो जाती है। हिंसा के मुख्य हेतुओंम प्रमादका प्रमुख स्थान है । प्राणीका घात हो या न हो, पर प्रमादोको हिंसाका दोष सुनिश्चित है । प्रयत्नपूर्वक प्रवृत्ति करनेवाले अप्रमत्त साधकके द्वारा बाह्य हिंसा होनेपर भी वह अहिंसक हो रहता है। अतएव प्रमाद हिंसाका मुख्य द्वार है ।
कवाय
आत्मा स्वभावतः ज्ञान, दर्शन और शान्तिरूप है । उसमें किसी भी प्रकार का विकार नहीं है । पर क्रोध, मान, माया और लोभ ये चार कषाएं आत्माको करती हैं और उसे स्वरूपसे च्युत करती हैं । कषायशब्दको व्युत्पत्ति - कष् धातुसे है और कष् धातुके दो अर्थ हैं-कर्षण एवं हिंसा" । जो जीवके सुखदुःख आदि अनेक प्रकारके धान्यको उत्पन्न करनेवाले तथा जिसकी संसाररूप मर्यादा अत्यन्त दूर है, ऐसे कर्मरूपी क्षेत्रका कर्षण' - खोदकर या जोतकर १. हिंसानृतस्तया ब्रह्मपरिमा काङक्षा रूपेणावितिः पञ्चविधा अथवा मनःसहितपचेन्द्रियप्रवृत्ति पूथिष्यादिषट्काय विराधनाभेदेन द्वादशविषा
- ब्रह्मदेव, उपसंहृटोका गाया ३० पृ० ८९.
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२. गोम्मटसार - जीवकाण्ड, गाथा २८१-२८२.
३७४ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा