Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 1
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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मध्यम आदि अनेक प्रकारकी होती है । परमाणु या अणुमें वजन -भार भी होता है, पर उसकी अभिव्यक्ति स्कन्धावस्थामें ही होती है । जिस प्रकार स्कन्धों में अनेक प्रकार के स्थूल सूक्ष्म, प्रतिघाती और अप्रतिघाती परिणमन अवस्थाभेदके कारण सम्भव होते हैं, उसी प्रकार अणु भी अपनी बाह्याभ्यन्तर सामग्रीके अनुसार दृश्य और अदृश्यरूप अनेक प्रकारकी अवस्थाओंको स्वयमेव धारण करता है । इसमें जो कुछ भी नियतता या अनियतता, व्यवस्था या अव्यवस्था है, वह स्वयमेव है । बोचके पड़ावमें पुरुषप्रयत्नका प्रभाव पड़ता है, पर योग्यताके आधारपर स्थूल कार्य कारणभाव नियत है ।
पुद्गल : कार्य
शरीर, वचन, मन और श्वासोच्छ्वासका निर्माण पुद्गल द्वारा होता है । शरीरको रचना पुद्गल द्वारा हुई है। ये दो भेद हैं: - (१) भाववचन, (२) द्रव्यवचन | भाववचन बीर्यान्तराय तथा मतिज्ञानावरण और श्रुतज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशमसे एवं अङ्गोपाङ्ग नामकर्मके उदयसे होता है । यह पुद्गल सापेक्ष होनेसे पौलिक है। पूर्वोक्त सामर्थ्ययुक्त आत्माके द्वारा प्रेरित होकर पुद्गल ही द्रव्यवचनरूप परिणमन करते हैं, अतः द्रव्यवचन भी पौलिक हैं ।
मनके दो भेद हैं: - (१) भावमन और (२) द्रव्यमन । लब्धि और उपभोगरूप भावमन है, यह पुद्गल सापेक्ष होनेके कारण पौद्गलिक है । ज्ञानावरण और वीर्यान्तरायके क्षयोपशमसे तथा आङ्गोपाङ्ग नामकर्मके उदयसे जो पुद्गल गुण-दोषका विचार और स्मरण आदि कार्योंके सम्मुख हुए आत्माके उपचारक हैं, वे द्रव्यमनसे परिणत होते हैं, अतएव द्रव्यमन भी पौद्गलिक है ।
वायुको बाहर निकालना प्राण और बाहरसे भीतर ले जाना अपान कहलाता है । वायुके पौद्गलिक होनेसे प्राणापान मी पुद्गल द्वारा निर्मित है ।
सुख, दुःख, जोषित और मरण भी पुद्गलोंके उपकार है। सुख-दुःख जीवकी अवस्थाएं हैं, इन अवस्थाओं के होने में पुद्गल निमित्त है, अतः ये पुद्गल के उपकार हैं। आयुष्कर्मके उदयसे प्राण, अपानका विच्छेद न होना जीवन है और प्राण - अपमानका विच्छेद हो जाना मरण है। प्राणापानादि पुद्गल स्कन्धअन्य है, अतः ये भी पुद्गलके उपकार हैं ।
धर्मद्रव्य : स्वरूप विश्लेषण
गतिशील जीव और पुद्गलोंके गमन करनेमें जो साधारण कारण है, वह धर्मद्रव्य है । जीव और पुद्गलके समान यह भी स्वतन्त्र द्रव्य है । यह निष्क्रिय है । बहुप्रदेशीय होनेके कारण इसे अस्तिकाय भी कहा जाता है ।
३५८ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा