Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 1
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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बल, स्वासोच्छ्वास और आयु इन चार प्राणोंसे युक्त हैं । जीवके दश प्राण माने जाते हैं:-(१) स्पर्शन, (२) रसना, (३) घ्राण, (४) चक्षु, (५) कर्ण, (६) कायबल, (७) वचनबल, (८) मनोबल, (९) आयु और श्वासोच्छ्वास । इन दश प्राणोंमेंसे एकेन्द्रिय जीवके चार प्राण, दो इन्द्रियके छह प्राण, तीन इन्द्रियके सात प्राण, चार इन्द्रियके आठ प्राण, असंशी पंचेन्द्रियके नव प्राण और और संजी पंचेन्द्रियके दश प्राण होते हैं । असंज्ञो या असैनी पंचेन्द्रिय जीव मनशक्तिके अभाव में शिक्षा-उपदेश आदिको ग्रहण करने में असमर्थ रहते हैं और संशी पंचेन्द्रिय जीव शिक्षा उपदेश लादिदो ग्रहण करते हैं :
ये सभी त्रस और स्थावर जीव अपने-अपने शरीरके प्रमाण होते हैं। जिस जोवको हाथोका शरीर प्राप्त हुआ है, वह जीव उस शरीरमें फैलकर रहता है । यदि वह हाथी मरकर चींटी हो जाये, तो वह जीव सिकुड़ कर चौंटीके शरीरमें समाहित हो जाता है । जीवका समस्त शरीर आत्मप्रदेशोंसे व्याप्त रहता है । न तो आत्माके प्रदेश शरीरसे बाहर रहते हैं और न शरीरका कोई भी अंश' आत्मप्रदेशोंसे खाली रहता है।
यों तो जीवसमासको अपेक्षा जीवोंके एकाधिक-अनेक भेद हैं, पर गतिकी अपेक्षा जोधके भेदोंका विचार करना आवश्यक है। जीवको संसारदशा चार गतियोंकी अपेक्षासे जानी जाती है। वे चार गतियां हैं । (१) मनुष्यगति, (२) देवगति, (३) तियंचाति और (४) नरकगति ।
जिस समय जीव मनुष्य-पुरुष या स्त्रीके शरीरमें रहता है, उस समय उसकी मनुष्यगति होती है। मनुष्य घोर पापकर नरक भी जा सकता है, शुभकर्म करके देव भी हो सकता है । अल्प पाप करके पशुशरोर भी प्राप्त कर सकता है और अल्प शुभकर्म करके पुनः मनुष्यभव प्राप्त कर सकता है । प्रबल तपस्या द्वारा कर्म-बन्धन नष्टकर मुक्ति भी प्राप्त कर सकता है। आशय यह है कि मनुष्यगति वह चौरस-चतुष्पथ है, जहाँसे समस्त गतियोंकी ओर यात्रा की जा सकती है। इसी कारण मनुष्यभवको सबसे उत्तम माना गया है ।
जीव जब देव-शरीरको प्राप्त करता है, तब उसकी देवगति होती है । देवको जन्मसे ही अवधिज्ञान-इन्द्रिय सहायताके विना मूसिक पदार्थोको जाननेको शक्ति होता है। उनका शरीर सुन्दर, स्वस्थ, विक्रियाऋद्धि-सम्पन्न और सुखी होता है। देव यदि पाप संचय करें, तो तिथंच योनिमें जन्म लेते हैं और शभ कर्मोदयसे उनको मानव शरीर प्राप्त होता है। देवतिसे क्युस जीवन तो नरफमें जन्म ग्रहण करता है और न पुनः देव होता है।
नरकमें उत्पन्न होना नरकगति है। नरक दुःखमय स्थान है। यहाँका ३४८ : तीर्थंकर महावीर और उनकी माचार्य परम्परा