Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 1
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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नहीं होती । आत्मा स्वयं ही अपने किये गये भावों के अनुसार कर्मोंको बांधता है और स्वयं ही अपने प्रयाससे कर्मसे मुक्त होता है । बन्धन और मुक्ति में परका किंचित् भी कर्तृत्व नहीं है । अतः स्वभावसे अपने रूपमें चलनेवाले इस जगतका न कोई नियन्ता है और न कोई स्रष्टा है। किसी भी देवी-देवताकी कृपासे इष्टानिष्ट फल प्राप्त नहीं हो सकता । सबसे बड़ा आत्मदेव है । इससे शक्तिशाली अन्य कोई भी नहीं है । हानि-लाभ, सुख-दुःख, अपने ही हाथमें है, अन्य किसीके हाथमें नहीं । जब आत्मा अपनी कर्तृत्व-भोमतृत्वशक्तिका अनुभव करने लगता है, अपने स्वरूपको पहचान लेता है, उस समय जगतके देवी-देवता सभी आत्माके चरणोंमें नतमस्तक हो जाते हैं । अतएव यह जीव स्वतन्त्र है तथा स्वयं ही कर्त्ता और भोक्ता है ।
जीव : भेद-प्रभेद
के मूलतः वेद हैं-- (१) जीव और (२) मुक्त जीव । कर्मबन्धनसे बद्ध एक गति से दूसरी गतिमें जन्म और मरण करनेवाले संसारी जीव कहलाते हैं । जो संसारसे बन्धनमुक्त हो चुके हैं, वे मुक्त जीव कहलाते हैं । संसारी जीवके ज्ञान, दर्शन, सुख, बल आदि गुणोंपर कर्मका आवरण चढ़ा हुआ है, जिससे उनके ज्ञान-दर्शन, सुख आदि गुण होनाधिक रूपमें अभिव्यक्त होते हैं । जब तक जीवके साथ क्रोध, मान, माया और लोभ रूप कषायभाव रहते हैं, तबतक जीवके अनन्त ज्ञानादि गुण विकसित नहीं हो पाते। जब संसारी जीव को यह प्रतीति हो जाती है कि यह मेरी दुःखित अवस्था पर-पदार्थके संयोगसे है, तो उस संयोगको हटानेके लिये प्रयत्न करता है । आत्तं और रौद्रध्यानको छोड़कर धर्मध्यान और शुक्लध्यानका आराधन करता है। अनशनादि तप द्वारा अपनी अन्तरंग मलिनताको दूर करता है। जिस प्रकार सोनेको तपानेसे उसमें मिले हुए रजत, ताम्र आदि परसंयोगरूप मैल और कालिमा नष्ट हो जाते हैं और वह सौ टंचका शुद्ध सोना हो जाता है । इसीप्रकार बात्मध्यान आदि तपोंके द्वारा यह जीव भी अपनी शुद्धि कर लेता है तथा इसके भी क्रोध, मान, अज्ञान आदि असंयमरूपी मेल समाप्त हो जाते हैं ।
बाहरी गन्ध, रंग आदिको तनिक भी मिलावट न होनेपर वर्षाका जल एक समान रहता है, उसी प्रकार पूर्ण शुद्ध आत्मा मुक्त जीव भी सब परस्परमें समान होते हैं । मुक्त जीवके ज्ञान-दर्शन, सुख और वीर्य पूर्णतया विकसित रहते हैं। पर संसारी जीवमें इन गुणोंकी होनाधिक रूपमें अभिव्यक्ति देखी जाती है ।
मुक्त जीव सभी प्रकार आकुलताओं बोर व्याकुलताओंसे छूटकर तीर्थंकर महावीर और उनको देशना ३४५