Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 1
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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है, मनके साथ दोष आनेसे मन भी अमूर्त है, अतएव उसे भी व्यापक मानना पड़ेगा !
(४) नित्य होने से भी आत्माको व्यापक मानने में दोष है। यहां भी मनके साथ व्यभिचार आता है ।
(५) आत्माके व्यापक होनेसे एक व्यक्ति भोजन करेगा, तो समस्त नगर, ग्राम, देश एवं राष्ट्रवासियों को तृप्ति हो जायगी । इस प्रकार व्यवहार-सांकर्यं उत्पन्न होगा । मन और शरीर के सम्बन्धसे विभिन्नता की व्यवस्था भी सम्भव नहीं है ।
(६) जहाँ गुण पाये जाते हैं, वहीं उसके आधारभूत उपागा रहता है । गुणोंके क्षेत्र गुणीका क्षेत्र न बड़ा होता है और न छोटा । सर्वत्र आकृति में गुणीके बराबर ही गुण होते हैं । अतएव आत्मा शरीरके बाहर व्यापकरूप में उपलब्ध नहीं है ।
जिस प्रकार आत्माका व्यापकत्व सिद्ध नहीं; उसी प्रकार आत्माका अणुत्व भी सिद्ध नहीं है । अणुरूप आत्माको माननेपर अंगुली के कट जानेसे समस्त शरीरके आत्म-प्रदेशोंमें कम्पन और दुःखका अनुभव होना सम्भव नहीं । अणुरूप आत्मा के माननेपर भी आलात - चक्रवत् उसकी गति स्वीकार करलेने से उक्त दोष नहीं आता । पर जिस समय अणु आत्माका चक्षु इन्द्रियके साथ संबंध होगा, उस समय भिन्न क्षेत्रवर्ती रसना आदि इन्द्रियोंके साथ युगपत् सम्बन्ध होना असम्भव है । जब हम किसी सुन्दर वस्तुको आँखोंसे देखते हैं, तो अन्य इन्द्रियाँ भी उस वस्तुको पानेके लिये गतिशील हो जाती हैं। इससे स्पष्ट है कि सभी इन्द्रियों के प्रदेशों में आत्माका युगपत् सम्बन्ध है । आपादमस्तक अणुरूप आत्माके चक्कर लगाने में कालभेद होना स्वाभाविक है तथा सर्वांगीण रोमांचादि कार्योंसे ज्ञात होनेवाली युगपत् सुखानुभूतिके विरुद्ध भी है । अतएव आत्मा के प्रदेशोन संकोच और विस्तारकी शक्ति रहने के कारण संसारावस्था में यह शरीरप्रमाण है । संकोच और विस्तारको शक्ति आत्मामें स्वाभाविक रूपसे विद्यमान है ।
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आत्मा के संकोच और विस्तारकी दीपक के प्रकाशसे तुलना की जा सकती है | खुले आकाशमें रखे हुए दीपकका प्रकाश विस्तृत परिमाण में होता है, उसी दीपकको यदि कोठरी में रख दें, तो बहो प्रकाश कोठरीमें समा जाता है। घड़ेगें रखते हैं, तो वह प्रकाश घड़े समा जाता है और ढकनीके नीचे रखनेसे ढकनी में समा जाता है। इसी प्रकार कार्यशरीरके आवरण से आत्मप्रदेशोंका भी संकोच और विस्तार होता है ।
३३८ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य - परम्परा