Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 1
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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तीर्थंकर महावीर स्वयं कामनाओंसे लड़े। विषय-वासनाओं पर विजय प्राप्त की, हिंसाको पराजित किया । असत्यको पराभूत किया जात्यभिमान, वर्गाभिमान एवं कर्माभिमानको पीछे की ओर फेंककर निर्वाणका पक्का मार्ग तैयार किया | साधना द्वारा उन्होंने जो कुछ प्राप्त किया, उसे बड़ी उदारता साथ जनकल्याणके हेतु मानव समाजको दे डाला। मानव ही नहीं, समस्त प्राणीवर्ग उनके द्वारा प्रदत्त आलोक में सुख-शान्तिका मार्ग ढूँढ़ने लगा। महावीर स्वयं सर्वज्ञ, वीतरागी और हितोपदेशी तो थे ही, पर वे समस्त प्राणीवर्गको अपने ही समान विकार और विषयोंके विजेताके रूपमें देखना चाहते थे ! उनके द्वारा निर्मित निर्वाणकी साढ़ियां प्राणिवगंके लिये सहज और सुलभ थीं । यहाँ यह ध्यातव्य है कि भौतिक कामनाओं में उलझे हुए मनुष्य में इतना सामर्थ्य कहाँ कि वह उन सीढ़ियोंकर आरोहण कर सके । यों तो उनकी दिव्य-देशना प्राणिमात्र के लिये हितकर थो और प्राणिमात्रको ही सुख और शान्तिको ओर इंगित करती थी। उन्होंने स्पष्ट घोषणा की कि धर्म वही है, जिसमें अहिंसाका आचरण हो, मन, वचन और कायकी कियाएँ अहिंसक होनेपर ही धर्मका रूप ग्रहण कर सकती हैं 1 अहिंसाको साधना तितिक्षा और संयम विना सम्भव नहीं है । अत: जहाँ अहिंसा है, वहाँ सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचयं और अपरिग्रह भी विद्यमान है। जो व्यक्ति सांसारिक सुख-समृद्धि के लिये अथवा पूजा-प्रतिष्ठा के लिये धर्माचरण करता है, वह अहिंसक नहीं । धर्माचरणका उद्देश्य आत्माकी पवित्रता होना चाहिये। जिसको दृष्टिमें समता और विचारोंम उदारता समाहित हो गयी है, वही व्यक्ति निर्वाण मार्गका पथिक बनता है। आत्माकी शुद्धि न गाँवमें होती है, न नगरमें होती है और न वनमें । इसकी शुद्धि तभी होती हैं, जब स्वयं आत्मा अपनेका अनुभूति कर लें । सुख-दुःख अपने ही द्वारा अर्जित है । स्वर्ग और नरक भी मनुष्यके हाथमें है। शुभोपयोग द्वारा सम्पादित कर्म अच्छा फल देते हैं और अशुभोपयोग द्वारा सम्पादित कर्म अनिष्ट फल । जो इन दोनों प्रकारके उपयोगोसे ऊपर उठकर शुद्धोपयोगका आवरण करता है, उसे ही निर्वाण प्राप्त होता है, उसीकी आत्मा शुद्ध होती है और वही धर्मात्मा माना जाता है ।
जिस प्रकार शर ऋतु के निर्मल जल में रहनेपर भी कमल, जलसे पृथक् और अलिप्त रहता है, उसी प्रकार शुद्धोपयोग में विचरण करनेवालो आत्मा संसारसे अलिप्त और बन्धनरहित रहती है । राग-द्वेष कर्मके बीज हैं और मोह उनका जनक है। जिसके राम-द्वेष और मोह विगलित हो गये हैं, वही शुद्धोपयोगका आचरण कर सकता है।
मुक्तिका अर्थ है -- मोक्ष, बन्धनों का विगलन, निर्बन्ध होना, छुटकारा प्राप्त तोर्थंकर महावोर और उनकी देशना : २८७