Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 1
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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अतः श्रीपावाका सठियांवा सम्भव नहीं है । पूर्वाग्रह लेकर किसी भी शब्दको कहीं भी घसीटा जा सकता है। यहाँ श्रीसरावगीजीका पूर्वाग्रह ही प्रतीत होता है ।
श्रीसरावगीजीकी एक नयी सूझ भी विचारणीय है । उन्होंने 'मज्झिमाकामव्यर्ती करवत्र्य किंतु बाकरपर किया है ? 'मज्झिमा' विशेषणका सीधा सम्बन्ध 'पाया' के साथ है, अतः देश शब्दका अध्याहार किस प्रकार सम्भव हुआ ? 'मज्झिमा' को विशेषायक विशेषण माना जाय अथवा साभिप्राय विशेषण माना जाय, इन दोनों ही स्थितियों में 'पावा' विशेष्यके रहते हुए 'देश' को बीचमें नहीं डाला जा सकता है ।
प्राचीन टीका-ग्रन्थों में 'पावाए मज्झिमाए' का अर्थ सर्वत्र 'मध्यमा पादा' ही प्राप्त है; मध्यदेशवर्तिनी पात्रा नहीं । अपने कथन की पुष्टिके लिए उन्होंने हरिवंशपुराण में वर्णित 'मध्यदेश' को 'मज्झिम' का बोधक लिखा है । पर इसकी सिद्धिके लिए प्रमाण नहीं दिया है । एक अन्य तर्क यह है कि 'मज्झिमाए पावाए' में मज्झिमा विशेषण स्त्रीलिङ्ग है, इसके 'मध्य' पुंल्लिङ्ग 'देश' शब्दका किस प्रकार अध्यहार संभव है ? मध्याहार साभिप्राय विशेषण के होनेपर लिङ्ग, वचन और विभक्तिके नियमानुसार ही होता है। शब्द गठनमें अनियमित व्यवहार नहीं पाया जाता है ।
शब्दरूपकी दृष्टिसे 'मज्झिमा' -- मध्यमाका रूपान्तर है, 'मध्य' का नहीं । 'मज्झ' से मध्य बनता है, यह विशेषण है और इसको निष्पत्ति 'मन् + यत्नस्यधः' से सम्भव है । मज्झिमा - मध्यमा भव अर्थ में 'म' प्रत्यय होनेसे 'मध्ये भवः – मध्य + म' – मध्यम + स्त्रीत्व टाप् - मध्यमा - मज्झिमा रूप निष्पन्न है । अतएव 'पावाए मज्झिमाए' का अर्थ मध्यमा पावा अथवा मध्यवर्ती पावा है, मध्यदेशवर्तिनी पावा नहीं ।
उल्लिखित तीनों पावाओंकी अवस्थिति पौराणिक भूगोलकी दृष्टिसे मध्यदेश में है । मनुस्मृति, विष्णुपुराण, वामनपुराण आदिके आधारपर मध्यदेशका विस्तार हेमाद्रिसे लेकर सह्याद्रि तक माना गया है। तीर्थंकर महावीरको निर्वाणभूमि 'मध्यमा पावा' थी, जिसकी स्थिति भाग प्रदेशकी पाया और गोरखपुर जिलेमें कुशीनाराकी निकटवत्तिनो पावाके मध्य थो ।
बौद्ध साहित्य में अनेक प्रसंगों में पावाका निर्देश आया है । वर्त्तमानमें कई विद्वान् बुद्धको अन्तिम यात्रामें वर्णित पावाको हो तीर्थंकर महावीरको निर्वाणभूमि बतलाते हैं। भयंकर बीमारीके अनन्तर' बुद्ध वैशाली से मण्डग्राम, अम्बग्राम १. दीघनिकाय २३ महापरिनिव्वाणसुत ।
३०४ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा