Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 1
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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आने लगीं। महावीर तो मौन रूपमें आत्म-साधनामें संलग्न थे, उन्हें झोंपड़ीकी क्या चिन्ता थी?
एक दिन कुलपतिके साथ उनके सभी शिष्य बाहर गये हुए थे। गायोंने उस दिन जी भरकर झोपड़ीकी घास खायी और जब संध्या समय कुलपति वापस लौटा, तो उसने देखा कि झोंपड़ीका अधिकांश भाग उजाड़ दिया गया है । गाय उसको घास खा दु है और रहार ध्यानस्थ हैं ! इस स्थितिको देखते ही कुलपतिको क्रोध उत्पन्न हो गया और महावीरको डाँटने लगे"पक्षी भी अपने घोंसलेका ध्यान रखते हैं, आप तो मनुष्य है, आपको अपनी इस झोपडीकी रखवाली करनो चाहिये थो। अरे, जिस झोपड़ी में रहते हो, उसकी रक्षा भी तुमसे सम्भव नहीं। तब तुम क्या साधना करोगे?"
अभी वर्षावासके प्रारम्भ होने में कुछ दिन अवशिष्ट थे । अतः महावीरने वहाँसे बिहार कर दिया और मनमें दृढ़ संकल्प लिया कि जो स्थान सस्वामिक हो, वहाँ नहीं ठहरना और निर्जन स्थानमें ध्यान एवं आत्म-शोधनका सम्पादन करना है । अब मोन रूपमें हो विचरण करूगा । मिट गये शूल, बन गये फूल __ महावीर मोराक-सन्निवेशसे ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए अस्थियाम पधारे । यहाँ ग्रामके बाहर रात्रिमें शूलिपाणि यक्षके चेत्यमें ठहरे । जनताने उनसे अनुरोध किया-'प्रभो ! यहाँका निवासी शूलपाणि महादुष्ट है । यदि रात्रिमें कोई भी भूला भटका यात्री इस चैत्यमें आकर ठहर आता है, तो यह यक्ष उसे मार डालता है। आपको जो हड़ियोंका पहाड़ दिखलायो पड़ रहा है, यह इसी यक्षके कुकर्मोका फल है । अतएव आप हमारी प्रार्थना स्वीकार कोजिये और यहां रात्रि व्यतीत करनेका कष्ट न कीजिये ! आप त्यागो-तपस्वी हैं । अतः दूसरा स्थान उपलब्ध करने में आपको कठिनाई नहीं है। यहाँ रहकर व्यर्थ प्राण मत दीजिये । जो इस यक्षके फंदेमें फँस जाता है, वह जीवित नहीं जा सकता।
लोगोंने यक्षके भय और आतंककी अनेक घटनाएं सुनायी तथा इस प्रकारके दृश्य उपस्थित किये, जिनसे कोई भी विचलित हो सकता था। ___ महावीर साहस और शूर-चौरताको मूर्ति थे । उन्होंने सोचा कि-"सम्यक् दृष्टिको न कोई भय है और न कोई भयजन्य किसी प्रकारकी पीड़ा हो । में तो इसी चैत्यमें रहकर चातुर्मास व्यतीत करूंगा और ध्यान द्वारा सभी प्रकारके उपसोको जीतूंगा।" महावीर कायोत्सर्ग-मुद्रामें ध्यानस्थित हो
तीर्थकर महावीर और उनकी देशना : १३९