Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 1
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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शब्दोत्पत्तिकी प्रक्रिया दो प्रकारकी है-प्रायोगिक और वनसिक । प्रयत्नजन्य शब्दोंको प्रायोगिक कहा जाता है और सहज निष्पन्न शब्द वैनसिक कहलाते हैं । शब्द ध्वन्यात्मक होते हैं, पर सभी शब्द भाषात्मक नहीं होते । वस्त्रसिक शब्द अभाषात्मक माने जाते हैं। मेघकी गर्जना सहज उत्पन्न होती है, पर उसमें कोई भाषा नहीं प्रायोगिक शब्द अभाषात्मक और भाषात्मक दोनों प्रकारके होते हैं। भाषात्मक ध्वनि अर्थविशेषको अभिव्यक्त करती है, अभापारमक ध्वनि अर्थशून्य होती है। तीर्थंकरकी दिव्यध्वनि प्रयोगकालमें अनक्षरात्मक होते हुए श्रोताके श्रवणके समय अक्षरात्मक रूपमें परिवर्तित हो जाती है । इस दिव्यध्वनिकी यह प्रमुख विशेषता है। दिव्यध्वनि जिन पुद्गलस्कन्धोंको प्रेषित करती है; वे गतिशील होते हैं। उनमें शब्दरूप-परिणमन करनेकी क्षमता होती है। आवर्तन-परावर्तन और विवर्तनकी क्रियाएँ भी होती रहती हैं। यह ध्वनि चलनेमें किसीको माध्यम नहीं बनाती । साधारणत: ध्वनि-प्रसारके लिये वायुका माध्यम अपेक्षित होता है । पर तीर्थकरकी ध्वनिमें ऐसी सहज स्वाभाविक शक्ति विद्यमान रहती है, जिससे वह सभी जातिके प्रोताओंके कर्णप्रदेशमें पहुंचकर तत्तद् भाषारूपमें परिणत हो जाती है ।
हरिवंशपुराणके एक पद्यमें बताया गया है कि जिस प्रकार आकाशसे वर्षाका पानी एकरूप होता है, परन्तु पृथ्वीपर पड़ते ही वह मानारूपोंमें दिखलायी पड़ने लगता है । उसी प्रकार तीर्थंकरको दिव्यध्वनि एकरूपमें रहते हुए भी सभामें स्थित पशु-पक्षी, देव-गंधर्व, मनुष्य आदिको अपनी-अपनी भाषामें अवगत होती है।' विध्यध्वनि : सर्वभाषा
दिव्यध्वनिको सर्वभाषात्मक माना गया है। आचार्य समन्तभद्रने अपने स्वयंभू-स्तोत्रमें तीर्थकर महावीरको दिव्यध्वनिको सर्वभाषात्मक कहा है और १. अमानारमापि तवृतं नाना पात्रगुणाश्रयम् । सभायां दृश्यते नाना विस्यमम्बु यथाथनौ ॥
-हरिवंशपुराण ५८।१५.
एकरूपापि तद्भाषा श्रोतून प्राप्य पृथविधान् । भेजे नानात्मतां कुल्पाजलस्मृतिरिवाध्रिपान् ॥
आदिपुराग १११८७. २, स्वयंभू-स्तोत्र, पा ९५. २३६ : तीर्थकर महावीर और उनकी शाघार्य-परम्परा