Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 1
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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रूप ही होता है।' ये दोनों द्रव्य विभावरूप परिणमन करनेके कारण अनादि का उसे सम्बद्ध हैं । शरीरमें बंधा हुआ जोव शुभाशुभ कर्म कर रहा है । जीवने पूर्व जन्ममें कर्म किये हैं और इस जन्म में भी कर्म संचित कर रहा है । इन संचित कर्मों के शुभाशुभ फलको भोगता हुआ जीव सुख-दुःखी होता है। यदि व्रतोपवास, संयम, तपस्या आदिके द्वारा इन कर्मोकी निर्जरा कर ले, तो शरीरबन्धनसे मुक्त हुआ जा सकता है । मन, वचन, काय द्वारा आस्रव निरोधकर संवरका पालन किया जाय, तो नवीन कमका बन्धन नहीं होता और तपस्यासे संचित कमका नाश हो जानेपर भवभ्रमणका अन्त हो जाता है । निस्सन्देह कर्मक्षयसे ही दुःखक्षय होता है ।"
तीर्थंकर महावीरके कार्य-कारण सिद्धान्त पर आधूत उपदेशने अन्य श्रोताओं के साथ राजा प्रदेशीको बहुत प्रभावित किया । इस सन्दर्भ में सप्ततत्त्व, नवपदार्थ, पञ्चास्तिकाय, छः द्रव्य, चार कषाय और अष्टकमौके स्वरूपको समझा । आत्म-परिणति के निर्मल होते ही प्रदेशीके राग-द्वेष गल गये, उसकी आत्मा आलोक आपूरित हो गयी और उसने मुनिदीक्षा धारण कर ली । कुरुदेश - हस्तिनापुर शिवराजवि द्रवीभूस
हस्तिनापुरकी अवस्थिति मेरठसे २२ मील पूर्वोत्तर और बिजनौरसे नैर्ऋत्यमें बूढ़ी गंगाके दक्षिण तटपर मानी जाती है। इस नगर के बाहर उत्तर-पूर्व दिशामें सहस्राम्रवन नामका उद्यान था । वह उद्यान सब ऋतुओंके फल-पुष्पोंसे समृद्ध था और नन्दनवन के समान रमणीय था ।
उस समय हस्तिनापुरमें शिव नामका राजा राज्य करता था । इसकी पट्टरानीका नाम धारिणी था । इस दम्पतिके शिवभद्र नामक पुत्र था ।
एक दिन राजाके मनमें रात्रिके पिछले प्रहर में विचार आया कि हमारे पास जो विपुल धनसम्पत्ति है, वह सब पूर्वापाजित पुण्यका फल है। अतः पुनः पुण्यार्जन के लिए प्रयत्न करना चाहिए। अपने उक्त विचारको कार्यरूपमें परिणत करने के उद्देश्यसे उसने अपने पुत्र शिवभद्रको राज्यपदपर प्रतिष्ठित कर दिया और स्वयं तापस दीक्षा लेकर गंगातटपर व्रतोपवास करना आरम्भ किया |
शिवराज ने घोर तपश्चरण किया और दिक्चक्रवाल तपके प्रभावसे उसने विभंगावधि प्राप्त किया। उसे अपने इस कुअवधिके कारण अधिकांश वस्तुएं विपरीत दिखलायी पड़ने लगीं। उसे सात द्वीप और सात समुद्र दिखलायी पड़ने लगे ।
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तीर्थंकर महावीर और उनकी देशना : २७३