Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 1
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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'एक मरनेवाले व्यक्तिको सन्दूक में बन्द कर दिया जाता है तथा सन्दुकको भी चारों ओरसे इस प्रकार बन्द कर दिया जाता है, जिससे उसमें हवा भी नही जाती । पर मरते समय वह आत्मा न तो सन्दुकके भीतर दिखलायी पड़ती है और न कहीं बाहर हो । यदि आत्मा है, तो उसे अवश्य दिखना चाहिए।" __केशी-"राजन् ! भवनके भीतर सब दरवाजों और खिड़कियोंको बन्द करके जब संगीतको मधुरध्वनि आरम्भ होतो है, तब उसे भवनके बाहर निकलते हुए कोई नहीं देखता, पर वह निकलकर श्रोताओंके कानोंसे टकराती है और उन्हें आहलादित करती है। सूक्ष्म शब्द तो पोद्गलिक हैं, फिर भी नेत्रोंसे नहीं दिखते । अव विचार कीजिए कि अरूपी यह आत्मा नेत्रोंसे किस सकार विकसपी डेमो ?'
प्रदेशोकी जिज्ञासा अभी शान्त नहीं हुई थी । अतः वह पुनः प्रश्न करता हुआ कहने लगा-"मनुष्य-शरीरके टुकड़े-टुकड़े करके उन्हें एक ऐसे सन्दूकमें भर दिया जाय, जिसमें कोई दूसरी वस्तु प्रवेश न कर सके। यहाँपर शरीरके वे टुकड़े सड़ जाते हैं और उनमें कीड़े उत्पन्न हो जाते हैं। अब प्रश्न यह है कि जीव यहाँपर कहाँसे आता है ?"
केशी-"राजन् ! जब आत्मा निकलते हुए महीं दिखलायी पड़ती तो प्रवेश करते हुए किस प्रकार दिखलागी पड़ेगो ? अमूत्तिक आत्माका दर्शन नहीं होता, अनुभूति होती है।"
इस प्रकार केशीकुमारने प्रदेशोको आत्माके अस्तित्वका बोध कराया और उसके परिणामोंमें परिवर्तन किया।
ग्रामानुग्राम विहार करता हुआ तीर्थंकर महावीरका समवशरण कैकेयी'. को राजधानी श्वेताम्बिकामें आया । प्रदेशी परिजन-पुरजन सहित महावीरकी वन्दनाके लिए गया। भगवानकी दिव्यचनि प्रारम्भ हई, सभी श्रीता धर्मश्रवणकर आनन्दित हो रहे थे। अवसर प्राप्तकर प्रश्न किया-"संसारका कारण क्या है ? और मुक्ति किस प्रकार प्राप्त की जाती है ? लोकके प्राणी किस प्रकार सुखी होते हैं ?"
इन्द्रभूति गणधरके निमित्तसे धर्मको प्रतिपादित करते हुए तीर्थंकर महावीरने कहा-"षट् द्रव्यों से जीव और पुद्गल द्रव्यमें दो प्रकारको परिणमन शक्तियाँ हैं--(१) स्वभाव और (२) विभाव । शेष द्रव्योंका परिणमन स्वभाव
___ कैकयोय"हरिवंशपुराण ३५
२७२ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा