Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 1
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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रही हो।
दिव्यध्वनिके सम्बन्धमें कुछ आचार्योका अभिमत है कि यह सर्वहित करनेके कारण वर्णविन्याससे रहित है। पर कुछ आचार्य इसे अक्षरात्मक ही मानते हैं, यतः अक्षरोंके समूहके विना लोकमें अर्थका परिज्ञान नहीं हो सकता है । भाषात्मक शब्द दो प्रकारके माने गये हैं--(१) अक्षरात्मक और (२) अनक्षरात्मक ! अक्षरात्मक शब्द संस्कृतादि भाषाके हेतु हैं और अनक्षरात्मक शब्द द्वीन्द्रियादिके शब्दरूप होते हैं ।
दिव्यध्वनिको अनक्षरात्मक इसलिए कहा जाता है कि वह जबतक सुननेवालेके कर्णप्रदेशको प्राप्त नहीं होतो, तबतक अनक्षरात्मक है और जब कर्णप्रदेशको प्राप्त हो जाती है, तब अक्षररूप होकर श्रोताके संशयादिको दूर करती है। अतः अक्षरात्मक कही जाती है । ___ वस्तुतः दिव्यध्वनि शब्दतरंगरूप होती है । तरंगें संप्रेषित होती हैं और श्रोता अपनी-अपनी योग्यताके अनुसार उन्हें ग्रहण कर लेता है। अतः अनक्षरात्मक होते हुए भी अक्षरात्मक दिव्यध्वनि मानी जाती है । आजका विज्ञान भी कहता है कि ध्वनिमात्र प्रकम्पनकी प्रक्रिया है ! शब्दोत्पादक सभी वस्तुएं कम्पन करती हैं। कम्पनके अभावमें ध्वनि पैदा नहीं होनो । केवली बोलनेका प्रयत्न नहीं करते, अपितु तीर्थकरनामकर्मोदयके कारण कण्ठ, तालु आदिको प्रकम्पित किये बिना हो शब्द-वर्गणाओंके कम्पनके साथ ध्वनि होती है। यह ध्वनि पौद्गलिक है। काययोगसे आकृष्ट कर्म-पुद्गलस्कन्ध स्वयं शब्दका आकार लेते हैं, भाषारूपमें परिणत होते हैं।
१. (क) दिव्यमहाध्वनिरस्य मुखाब्जान्मेपरवानुकृति निरगच्छत् । भव्यमनोगतमोहतमोमनातवेष यथव तमोऽरिः ।।
- महापुराण २३२६९. (ख) ताल्योमपरिस्पन्दि नछायान्तरमानने ।
अस्पृष्टफरणा वर्णा मुखावस्य विनिर्ययुः॥ स्फुरगिरिगृहोद्भूतप्रविशुष्यनिसन्निभः । प्रस्पष्टवर्णो निरगाद् ध्वनिः स्वायम्भुवाम्मुखात् ।।
वही, २४।८२-८३. २. पञ्चास्तिकाय-वात्पर्यवृत्ति १।४।९. ३. वही, ७९।१३५।६. ४. गोम्मटसार-जीवकाण्ड-जी०प्र० २२७॥४८८१५.
तीर्थकर महावीर और उनकी देशना : २३५