Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 1
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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बीजपदोंसे युक्त है। अतः सभी प्राणियोंको अपनी-अपनी भाषामें प्रवचन सुनायी पड़ता है ।
कहा जाता है कि तीर्थंकर महावीरकी दिव्यध्वनि अर्धमागधी भाषा में होती थी । वैयाकरणोंने इसे आषं प्राकृत कहा है । अर्धमागधीशब्द की व्युत्पत्ति 'अघं मागध्या' अर्थात् - जिसका अर्धांश मागधी हो और शेष अद्धीश अन्य भाषाओंसे निर्मित हो, वह अर्धमागधी है । इस व्युत्पत्तिका समर्थन ई० सन् सातवीं शताब्दीके विद्वान् जिनदासगण महत्तरके 'निशीथचूणि' नामक ग्रन्थ में उल्लिखित "पोराणद्धमागहभासा निययं हवई सुत्तं" द्वारा भी होता है । अर्थमागधीशब्दकी व्याख्या - " मगहुद्धविसयभासानिवज्रं अद्धमागही " — अर्थात् मगधदेशके अर्धप्रदेशकी भाषा अर्धमागधी कही जाती है । अर्धमागधो में अठारह देशी भाषाओं का मिश्रण माना गया है। बताया है- "अट्ठारस देसी भासा निययं वा अद्ध-मागहं" । जिनसेनने भी इसे सर्वभाषात्मक कहा है ।
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अर्धमागधीका मूल उत्पत्ति स्थान मगध और शूरसेन (मथुरा) का मध्यवर्ती प्रदेश है। तीर्थं करोंके उपदेशकी भाषा अर्धमागधी ही मानी गयी है । आदितीर्थंकर ऋषभदेव अयोध्या के निवासी थे । अतः अयोध्या के पाश्र्ववर्ती देशको मापन ही होगी।
एक धारणा यह भी प्रचलित है कि भगवान् महावीर अर्धमागधीमें उपदेश देते थे । इनका जन्मस्थान वैशाली था, इनके विहार और प्रचारका मुख्य क्षेत्र पूर्व में राढ़ भूमिसे लेकर पश्चिम में मगधको सीमा तक, उत्तर में वैशालीसे लेकर दक्षिण में राजगृह और मगधके दक्षिणी किनारे तक था। यों तो महावीरका समवशरण देशके प्रत्येक भागमें गया था, पर उनकी तपस्या और वर्षावासोंका सम्बन्ध उक्त प्रदेशके साथ विशेषरूपसे है । अतः अर्धमागधी इसी क्षेत्रकी भाषा रही होगी। यह भी ज्ञातव्य है कि इन क्षेत्रोंमें बोली जानेवाली अन्य बोलियों का प्रभाव भी अवश्य पड़ा होगा | आर्यभाषाके अतिरिक्त इन क्षेत्रों में मुण्डा एवं द्रविड़वर्गको भाषाएँ भी प्रचलित थीं । अतः इन दोनों वर्गकी भाषाओंका प्रभाव भी अर्धमागधीपर अवश्य पड़ा है। अर्धमागधीमें संस्कृतके
१. सर्वार्धमागधी सर्वभाषासु परिणामिनीम् ।
सर्वेषां सर्वतो वाचं सार्वशी प्रणिदध्महे ॥
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- वाग्भट - काव्यानुशासन, पृ० २.
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"भगवं चणं अद्धमाहीए भालाए घम्ममाइक्लद्द " – समावायाङ्गसूत्र, पद्म ६० २. महापुराण ३३।१२०, ३३१४८.
२३८ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा