Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 1
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
View full book text
________________
गये । जब आधी रात्रिका समय व्यतीत हुआ और यक्षने देखा कि एक नग्न संन्यासी उसके चैत्यमें निर्भय होकर ध्यानारूढ़ है तो उसका क्रोध बढ़ गया और वह नाना प्रकारके रूप बना-बनाकर महावीरको असह्य और असंख्य यातनाएं देने लगा। पर महायोश्पर इन सबका कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ा। उसने अपशब्दोंके साथ मार-पीट भी की, पर अन्तमें हताश हो वह तीर्थंकर महावीरके चरणोंमें गिरकर क्षमा-याचना करने लगा और स्तुति करता हुआ अन्तर्हित हो गया ।
बताया जाता है कि उपसर्गके दूर होनेपर तीर्थंकर महावीरको रात्रिके अन्तिम प्रहरमें कुछ क्षणके लिये नींद आयी और इसी समय उन्होंने कुछ स्वप्न देखे । इसके पश्चात् तो महावीर समस्त जीवन भर जागृत हो रहे और बारह वर्षोंके तपश्चरण में एक क्षणको भी न सोये ।
उनको अनवरत महावीरका अनुपम साहस और त्याग अतुलनीय था साधना द्वारा कर्मपाश शिथिल हो रहे थे। अविचल तपने कर्मकी श्रृंखलामको जर्जर कर दिया था। महावोरका रोम-रोम एक दोप्त आत्म-ज्योतिका सिंहासन बना हुआ था। चारों ओर एक प्रभामण्डल उनके भावी तीर्थंकरत्वका तूर्यनाद कर रहा था ।
अपने इस प्रथम चातुर्मासमें महावीरने पन्द्रह-पन्द्रह दिनके आठ अर्द्धमासी उपवास किये और पारणाके लिये केवल आठ बार उठे ।
बताया जाता है कि तीर्थंकर महावीरके निमित्तसे शूलपाणि-पक्ष के शान्त हो जानेके कारण अस्थिग्रामका नाम वर्द्धमाननगर रख दिया गया, जो आज भी 'बर्दवान' के नामसे पश्चिम बंगाल में प्रसिद्ध है। महावीरकी साधना अनुपम थी। उन्होंने एक वर्ष के साघना कालमें ही अनेक ऋद्धि-सिद्धियां प्राप्त कर ही थीं ।
द्वितीयवर्ष की साधना सर्पोद्बोधन
प्रथम चातुर्मास समाप्त कर महावीरने अस्थिग्रामसे विहार किया और वे दे मोराकसन्निवेश पहुँचे। वहाँ कुछ दिन तक ठहर कर उन्होंने वाचलाकी ओर प्रस्थान किया। जब वे मार्ग में कुछ आगे बढ़े तो गाय चरानेवाले ग्वालोंने उनसे प्रार्थना की कि "यह मार्ग निरापद नहीं है। इसमें भयंकर एक दृष्टिविष नामक सर्प रहता है। वह पथिकोंको अपने दृष्टिविषसे मार डालता है । उसके विषैले फूत्कारसे आकाशमें उड़ते पक्षी भी धरतीपर आ गिरते हैं ।
१४० : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा