Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 1
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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और तीर्थंकरोंकी अर्थरूप वाणीका व्यास्थाता होता है। प्रत्येक तीर्थकरके सोर्च में गणघर एक अत्यावश्यक उत्तरदायित्वपूर्ण और महान प्रभावशाली व्यक्तित्व होता है । वह इनके पादमूलमें दीक्षित होता है।
वस्तुतः साधनाके क्षेत्रमें व्यक्ति स्वयं अपना विकास कर सकता है, पर साधनाको सिद्ध करके उसके प्रकाशको बन-बनके जीवनमें प्रसारित करनेके हेतु महान व्यक्तित्व-सम्पन्न व्यक्ति भी समाजमें जब प्रविष्ट होता है अथवा संघ एवं समाजको स्थापना करता है, तब उसे इसके लिये सहयोगोंके स्पमें तेजस्वी व्यक्तिस्वकी अपेक्षा होती है। यतः सहयोगके बिना कार्यको साकार रूप नहीं दिया जा सकता है। जानको अभिव्यक्ति करनेके लिए क्रियाका सहयोग आवश्यक है। व्यक्तिका आचार ही व्यक्तिके विचारको अभिव्यक्ति दे सकता है। आचारके विना विचार साकार रूप ग्रहण नहीं कर सकता है। इसी प्रकार प्रदालु एवं कर्मनिष्ठ व्यक्ति ही महान् तेजस्वी व्यक्तित्वकी तेजस्विताको जन-जनके समक्ष प्रकट कर सकता है।
प्रत्येक तीर्थकरके लिए गनपरको नितान्त मावश्यकता है। तीर्थकरकी शान-साधना गणवरके द्वारा ही अभिव्यक्तिको प्राप्त होती है। अतः महावीरकी दिव्यज्ञानधाराको ग्रहण करनेवाफा कमाकर परसा मारा है। सोमिछ और इनभूति ___ मगधमें आर्य स्रोमिल नामक एक विद्वान ब्राह्मण ब्राह्मणवर्गका नेतृत्व अपने हाथमें लिये हुए पूर्वीय भारतमें बत्यन्त प्रतिष्ठित वा। उसने मध्यमा पावामें एक विराट् यशका आयोजन किया, जिसमें पूर्वी भागोंके बड़े-बड़े दिग्गज विद्वानोंको उनके शिष्य-परिवार सहित आमन्त्रित किया । इस महायज्ञके अवसरपर बेदविरोधी विचारधाराके कड़े प्रतिवादके उपामोंपर एवं साधारण जनताको पुनः वैदिकविचारोंको बोर आकृष्ट करनेके साधनोंपर भी विचार करनेके निमित्त योजना बनाई गई थी। इस महायज्ञका नेतृत्व मगध के प्रसिद्ध विद्वान एवं प्रकाण्ड तर्कशास्त्री इन्द्रभूति गौतमके हायमें था।
इस अनुष्ठानमें सहस्रों विद्वानों के साथ अग्निभूति, वायुभूति आदि एकादश महापण्डित उपस्थित थे। वैदिक विचारधाराके समर्थक अपने विखरते हुये प्रभुत्वकी पुनः स्थापनाहेतु वहाँ सम्मिलित थे | आर्य सोमिलको बयध्वनि बाकाम तक पहुंच रही षो। इन्ः मूति गौतम :सुथा श्रद्धाका द्वार इन्द्रभूति गौतमका जन्म भगध-जनपदके गोबर ग्राम में हुआ था। इनकी
सीकर महावीर बौर उनकी देशना : १८५