Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 1
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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शिकारी कुत्तोंको अपने देशमें कर लिया है। अब में इसकी खबर लिये बिना नहीं भानुंगा
इस प्रकार बिचारकर बिम्बसारने तरकसे बराण निकाला और यमघर मुनिपर चलाना आरम्भ किया। पर यहाँ भी अत्यन्त विश्मयकारी घटना घटित हुई । बिम्बसारके बाण धमवर मुनिराज तक पहुंचते ही नहीं थे। बलपूर्वक चलाये गये बाण भी उनको प्रदक्षिणा देकर वापस लौट जाते। बाणोसे मुनिराजकी कुछ भी हानि नहीं हुई ।
इस घटना से बिम्बसारका मन कोपज्वालासे जल उठा । उसकी द्वेषाग्नि और अधिक भभक उठी। अतएव उसने एक मृत सर्प यमधर मुनिके गले में डाल दिया । सर्पके पद भी मुनिराज पहले समान ही गम्भीर और बटल बने रहे ।
बिम्बसार जब लौटकर अपने राजभवन में पहुंचा, तो उसने बड़े गर्व के साथ राजमहिषी चेलनाको बतलाया कि आज उन्हें किस प्रकार एक मुनिका दर्शन हुआ । अपने शिकारी कुत्तोंको छोड़ा, पर वे मुनिकी प्रदक्षिणा कर शान्त हो गये । मुनिको आहत करनेके लिए उसने बाण चलाये, पर वे भी विफल हो गये । जब मुनिको प्रत्यक्ष रूपसे किसी प्रकारका कष्ट न पहुँचा सका तो मृतसर्प उनके गले में डालकर वहांसे वापस चला आया । राजमहिषी चेलनासे अहंकारपूर्वक उक्त बातें कहते हुए वे बोले-''देवी ! लगता है कि तुम्हारा गुरु बड़ा मायावी या मान्त्रिक है। उसने कुत्तोंको तो वशमें कर ही लिया, मेरे बाणोंको भो असफल कर दिया । "
राजमहिषी चलना - "स्वामिन्! अहिंसा की पूर्ण साधना करनेवाले जैन भुनि वीतराग होते हैं। राग-द्वेषसे रहित होने के कारण उनके समक्ष हिंसाकी क्रियाएं असफल हो जाती है। शरीरसे ममत्वका त्याग करनेके कारण ये समदर्शी होते हैं । भापने इन्हें दुःख देकर बड़ा पाप किया है। आपको अपने बुरे आचरण के लिए प्रायश्चित्त करना चाहिए ।
बिम्बसारने राजमहिषी चेलनाकी बातोंको हँसीमें उड़ा देना चाहा; पर जब चेलनाने अपने तर्कों द्वारा राजाको प्रभावित किया तो उन्हें मुनिराज यमघरको सेवामें उपस्थित होने के लिए बाध्य होना पड़ा ।
यमघर ध्यानमें संलग्न थे। उनके मुँहपर दिव्य तेजकी छटा विद्यमान थी । शरीरपर लाखों चींटियां चढ़ी हुई थीं। चींटियोंने काट-काटकर उनके शरीरको क्षत-विक्षत कर दिया । किन्तु शरीर से इतने अनासक्त थे कि उन्हें इस वेदनाका तनिक भी अनुभव नहीं हो रहा था । उनकी चेतना अखण्ड अनन्त आनन्दसे परिपूर्ण थी । उनके आध्यात्मिक विकासके समक्ष भौतिक विकास
२०८ : तीर्थंकर महावीर और उनको आचार्य - परम्परा