Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 1
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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नहीं । यह सत्य है कि यह क्रोधी है, कियेका पर्याप्त फल मिल चुका है। चाहिये और जोर-जोरसे वाद्य बजाने न पड़े।"
असहिष्णु है और चंचल है । इसे अपने अतएव अब इसे वापस भीतर बुला लेना चाहिये, जिससे इसकी बड़बड़ाहट सुनायी
किसी प्रकार गोशालकको त्राण मिला और उसने रात्रिका अवशेष भाग व्यतीत किया । महावीर तो ध्यानस्थ थे ही; आत्मानन्दकी अनुभूति होने के कारण उन्हें बाह्य परिवेशका बोध न था ।
अग्निकृत उपसगंजय
प्रातःकाल होते ही महावीरने कयंगला से श्रावस्तीकी ओर विहार किया । चर्याका समय होने पर गोशालकने नगरमें प्रवेश करने को कहा । यहाँ चर्याक समय ऐसी घटना घटित हुई, जिससे गोशालकको विश्वास होगया कि - "भवितव्यता दुनिवार है !”
शनैः-शनैः घटनाएं इस प्रकार घटित हो रही थीं, जिससे गोशालकको निय सिवादपर अटूट विश्वास होता जा रहा था ।
श्रावस्ती से तीर्थंकर महावीर हृल्यदुयभ्रामकी ओर चले। वे नगरके बाहर एक वृक्ष के नीचे ध्यान-स्थित होगये। रात्रिमें वहाँ कुछ यात्री ठहरे हुए थे और उन्होंने शोससे बचने के लिये अग्नि जलायी थी । प्रातः काल होनेके पूर्व ही यात्री सो चले गये, पर आग बढ़ती हुई महावीरके पास जा पहुंची, जिससे उनके पैर झुलस गये। महावीरने यह वेदना शान्तिपूर्वक सहन की और आग के बुझ जाने - पर उन्होंने मंगला गाँवकी ओर विहार किया। यहाँ गाँवके बाहर महावीर तो वासुदेवके मन्दिरमें ध्यानस्थ हो गये, पर वहाँ खेलनेवाले लड़कों को गोशालकने डरा-धमका दिया। लड़के गिरते-पढ़ते घरोंकी ओर भागे और उन्होंने अपने अभिभावकोंसे जाकर गोशालककी घटना निवेदित कर दी ।
अविभावक क्रोषाभिभूत हो गये और उन्होंने वहाँ आकर गोशालकको खूब पीटा। महावीर तो ध्यानस्य थे, उन्हें इस घटना की कोई भी जानकारी म थी। पिटता हुआ गोशालक अविभावकोंको तो बुरा-भला कह ही रहा था, पर महावीरको भी कायर और डरपोक समझने लगा । वह महावीरकी सहनशीलताको समझ नहीं पा रहा था। उनकी सिंहवृत्तिका उसे यथार्थ बोध च था ।
नंगलाले विहारकर महावीर आवतंग्राम पहुँचे और वहाँ नगरसे बाहर अने बलदेवके मन्दिरमें रातभर ध्यानस्थ रहे। दूसरे दिन वहाँसे प्रस्थान कर वे
तीर्थंकर महावीर और उनकी देशना १४९