Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 1
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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कनोज्ज्वलके मनमें युवावस्थाजन्य वासनाओंका द्वन्द्व आरंभ हुआ । कभी वह अपनी रूपवती भार्याके गुणोंका स्मरण करता, तो कभी पुरुरवा और सिहपर्याय में किये गये संकल्प उसे उद्वेलित करने लगते । कुमारके समक्ष अनेक विद्याधरकन्याओंके परिणयके प्रस्ताव उपस्थित किये गये । एवं सांसारिक विषय-भोगोंका चाकचिक्य प्रस्तुत किया गया । पर उसका मन इन सब विषयोंमें रम न सका । एक दिन वह अपनी पत्नी कनकावती के साथ क्रोड़ा करता हुआ महामेरु पर्वतपर जिन चैत्योंको पुजाके लिये गया। वहाँपर ऋद्धिधारी अवविज्ञानी मुनीश्वरको देख उनकी तीन परिक्रमाएँ की और 'नमोऽस्तु' कहकर वह उनके पादमूल में बैठ गया । जो बीज एक दिन मिट्टी के अन्दर दबा पड़ा था, जल, पवन और प्रकाशका संयोग मिलते ही वह अंकुरित होने लगा । इस अंकुरने भीतर और बाहर दोनों ही ओर अपनी यात्रा आरंभ की । अन्दरको ओर बढ़नेवाले अंकुर ने बीजके अनुरूप ही भीतर से खोज और छान-बीन के साथ जीवनशक्ति प्रदान की । कनकोज्ज्वलका अज्ञानतिमिर नष्ट होने लगा और भीतर के प्रकाशसे प्रकाशित हो उसने कहा - "प्रभो ! जन्म-मरणको दूर करनेका उपाय बतलाइये | अगणित पर्यायों में मैंने सांसारिक वेदना सही है । अब आप जैसे गुरुको प्राप्तकर में निर्वाण मार्गका उपदेश सुनना चाहता हूँ ।"
मुनिराज -- " वत्स ! अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, ईर्ष्या, भाषा, एषणा, आदान-निक्षेपण, उत्सर्ग, मनगुप्ति, वचनगुप्ति एवं काय गुप्तिरूप तेरह प्रकारके चारित्रको वीतरागमुनि धारण करते हैं । काम, क्रोध, मोह, लोभादिको जीतकर संयम, तप और ध्यानके द्वारा सिद्धि प्राप्त करते हैं । यह साधनामार्ग ही वीतरागताका मार्ग है । जो आत्म-दर्शन कर लेता है, उसे ही निराकुल साधनाको उपलब्धि होती है । कुमार! अब तुम्हारा संसार निकट आ गया है । तुम्हारा चित्त द्रवीभूत हो गया है। अतएव इसमें धर्मवृक्षका रोपण सरलतापूर्वक किया जा सकता है ।"
पूर्वार्जित संकल्पके उदित होते ही कुमार के हृदयमें आलोक भर गया 1 उसे संसार, शरीर और भोगोंसे विरक्ति हो गयी । वह सोचने लगा कि में अपनी आत्माको परमात्मा बना सकता है । मुझमें सभी शक्तियां निहित है । केवल पुरुषार्थकी कमी है, उसे ही मुझे जागृत करना है। वह द्वादश अनुप्रेक्षाओंका चिन्तन करने लगा, जिससे संसारकी वास्तविकता उसके नेत्रोंके समक्ष प्रत्यक्ष होने लगी। सिंह्रपर्याय में अजितञ्जय द्वारा दिया गया उपदेश भी मूर्तिमान हो उठा । कुमारने अपने चित्तका संशोधनकर बाह्य और अन्तरंग परिग्रहको छोड़नेका संकल्प किया। उसने विषय-भोगोंको निस्सार समझा और दिग
४६ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा