Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 1
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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गणतंत्र विश्वका धर्मनायक बनने के लिये प्रयलशील था। महाराज सिद्धार्थ शातृवंशके वैभव महावीरके जन्मकी अगवानी कर रहे थे । सारा कुण्डपुर सहज उमंग और उल्लासका अनुभव कर रहा था | नगरको प्रत्येक डगर आनन्दमें डूबी हुई थी और ऐसा प्रतीत हो रहा था कि कोई निधि यहां उद्धृत होनेवालो है। सूखे धरतीके आँस्न ____ अज्ञानवाद, अनिश्चितवाद, निर्यातवाद, गौतिकवाद, अक्रियावाद, यज्ञवाद एवं क्रियाकाण्डवादने समाजमें निराशा जान्न कर दी थी। फलतः समाजविकृतिके कारण धरतीके नेत्रोंसे भी आँसू झर-झर कर गिरते थे । जब-जब धरतीपर पाप और अत्याचार बढ़े, महान् आत्माओंने जन्म ग्रहण किया। सभीने अपने-अपने दंगसे मानव-समाजको राह दिखायी, संसारके दुःखोंको दूर करनेका संकल्प लिया, वैशालीकी धरती और आंगन महावीरके आविर्भावकी प्रतीक्षामें
आँसू बहा रहा था | धरा पर चारों ओर अन्धकार आच्छादित था। विवेकका मार्ग अवरुख था | फलत: उनके आगमनकी प्रतीक्षामें धरती मुस्कुरा उठी थी।
पृथ्वीके आँचलसे शनैः शनै: सुखकी मणियाँ लुप्त होती जा रही थी और दुःखकी काली छाया चारों और बढ़ रही थी। यद्यपि देशमें धन, सम्पन्नता ओरखाद्यसामग्रीका अभाव नहीं था, पर दास और सेवकोंके साथ किये जानेवाले बर्बरतापूर्ण व्यवहार धरतोके हृदयको कचोट रहे थे 1 पापपूर्ण वासना और विलासिताके प्रचण्ड अग्नि-कुण्डमें दी जानेवालो आहुतिसे निःसृत धूम-कालुष्यने आकाशको आच्छादित कर लिया था | स्त्री और पुरुष दोनोंने ही नीति और धर्मके आँचलको छोड़ दिया था और दोनों ही कामुकताके पंकमें फंसे हुए थे। आचार-विचार, शील-संयमकी अवहेलनाने धरतीक हृदयको मथ दिया था। लोगोंका ध्यान मन-प्राण और आस्माकी धवलतासे हटकर शरीरपर केन्द्रित हो गया था। लोग शरीरको ही सर्वस्व मानने लगे थे। मांस-भक्षण, मदिरा-पान, द्यूत-क्रीड़ा आदिने धरतीको यंत्रणाका लोक बना दिया था 1 वर्णाश्रमधर्मका अर्थ स्वार्थकी संकीर्ण सीमामें आबद्ध हो गया था । शब्द एवं चाण्डालोंका दर्शन भी अशुभ समझा जाता था और उनकी छायाका स्पर्श होते ही स्नानको व्यवस्था को जाती थी । अतएव धरतीका पुलकित होना आरम्भ हुआ और वैशाली में जगत्वंदनीय महावीरने जन्म ले घराको धन्य किया। निश्चय ही वैशालीको धरतो कितनी पूज्य है, जिसको गोदमें तीर्थकर महादोरने कोड़ा की है।
वैशालीका परिसर कुण्डपुर पुलकित हो उठा । शत-शत वसन्त खिल उठे, सदानीरा आधुनिक नारायणी गंडकी)तरंगित हो गयो और कोटि-कोटि मानवोंने ८६ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा