Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 1
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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और स्वाभाविकता जन-जनके लिये बन्दनीय थी। असएव वे विश्व-कल्याणके हेतु अपना सर्वस्व त्याग करनेके लिये प्रस्तुत थे। माताको ममता
माता त्रिशला महावीरके अद्वितीय और अलौकिक शरीरके तारुण्य और लावण्यको देखकर लाख-लाख मनसे उनपर बलिहारी हो जाती। वह मन हो मन सोचती, का होछा होला, पति महा दोरा विदाह हो जाता और राजभवन में बधुका प्रवेश होता। माताका मन बहके सौन्दर्यको कल्पनासे उल्लसित होने लगा। वह बेटेके भावी सुखको कल्पना कर आनन्दित ही नहीं होती, अपितु कुछ क्षणके लिये उन्मत्त हो नृत्य भी करने लगती। त्रिशलाकी ममताका एकमात्र आधार महावीर था। वह अपनी समस्त आकांक्षाओंको महावीरके अभ्युदय द्वारा ही पूर्ण करना चाहती थी । वह अपने लाड़लेको सुखभोगोंके बीच देखकर अत्यन्त आङ्गदित होती थीं। उसकी कामना थी कि वह धूल-धूसरित पौत्रको गोदमें खिलाकर आनन्दित हो।
त्रिशलाने अपनी यह आकांक्षा महाराज सिद्धार्थके समक्ष प्रस्तुत की। सिद्धार्थने महारानीके प्रस्तावका समर्थन किया। मंत्रियोंने भी महाराज सिद्धार्थका अनुमोदन किया । फलतः योग्य कुमारीसे विवाह-सम्बन्ध स्थिर करनेके लिये रातदूत दौड़ाये गये। बड़े-बड़े राजा-महाराजा अपनी-अपनी राजकुमारियोंका पाणिग्रहण-सम्बन्ध महाबोरसे करनेके लिये लालायित थे। विवाह प्रस्ताव
महावीरकी जन्मगाँठके अवसरपर कलिंग देशके महाराज जितशत्रु अपने राज-शिविर सहित कुण्डग्राममें पधारे। इनकी षोडसी कन्या यशोदा अनुपम सुन्दरी थी। आकाश और धरती भी उसके सौन्दर्यका वर्णन करते थे। यशोदाकी आशुतोष छवि कलिंगका गौरव थो। मांसलपुट देह, सुवर्णचम्पक-तुल्य वर्ण, शिरोषसम मृदुल गात, विशाल नेत्र, पूर्णेन्दु-तुल्य मुख, कोकिलकंठी और मृगनयनी राजकुमारी यशोदाने महाराज सिद्धार्थ और महारानी त्रिशलाके मनको जीत लिया । महाराज सिद्धार्थ और रानी त्रिशला राजकुमारी यशोदाको अपनी पुत्रवधू बनानेके लिये अत्यन्त उस्कण्ठित थे। सिद्धार्थने महारानी विशल.से
१. यशोदयायां सुतया यशोदया पवित्रया पीरविवाहमङ्गलम् । अनेककायापरिवारयारुहस्सभीक्षितुं तुङ्गममोरथं सदा ।।
-हरिवंश पुराण ६६१८. १२० : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा