Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 1
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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समस्याओंका समाधान प्राप्त करते । राजा सिद्धार्थं महावीरके बढ़ते हुए इस प्रभावको देखकर अत्यन्त पुलकित थे । वे पुत्रकी समृद्धिको अवलोकित कर सुनहले स्वप्न संजोते और विचार करते कि महावीरका जन्म देशकी जनताको दासताके बन्धनों से मुक्ति दिलानेके लिये हुआ है। वास्तवमें मैं धन्य हूँ, जिसके घरमें तीर्थंकर महावीरने जन्म लिया है। यह विश्वका धर्म- नेता बनेगा और समस्त व्यवधान, अमंगल और मोह बन्धनों को शिथिल करेगा ।
महावीरको सब कुछ सहज और सुलभ था। बड़ी-बड़ी लावण्यवती वाराङ्गनाएं अपने नृत्य, चाद्य और संगीत द्वारा उनका मनोरंजन करतो थीं, पर महावीरका चित्त इनसे अलग था । उनका मन भव-सागरके उस तटपर चरम शक्तिका अन्वेषण करता था। वे मोक्ष- साधनके लिये तैयारियाँ कर रहे थे। अपनी इस साधना के समक्ष उन्हें सांसारिक सुख अकिंचन प्रतीत होते थे। उनके अन्तःकरणको राजसी विलास एक क्षण भी नहीं रुचता था । वे अपने पूर्व भवका स्मरण करते हुए कभी सोचने लगते
चिन्तनधारा
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"आज जिन विनश्वर ऐश्वयोंके बीच मैं हूँ, उनसे कई गुना अधिक वैभव भोग चुका हूँ। मुझे अगणित देवाङ्गनाओंका सुख मिला, इच्छानुसार अमृतको प्राप्ति हुई, पर तृप्तिका अनुभव कभी नहीं हुआ । सांसारिक समस्त भोगोपभोग त्याग - सुखकी तुलना में नगण्य है। अब संयम और त्यागका अवसर उपस्थित हुआ है । अतः मुझे आत्म-शुद्धिकी दिशा में प्रगति करनी है। मोह, माया, ममता और अस्मिता पर विजय प्राप्त करनी है । अहंताके पंकसे ऊपर उठकर जीवनको निर्मल बनाना है । मुझे उन दिनोंको स्मृति भा रही है, जब मैं 'पुरुरवा भीलको पर्याय में धनुष-बाण लेकर आखेट किया करता था । उन दिनों मुनि सागरसेनने मुझे उपदेश दिया था, उसकी आज भी स्मृति बनी हुई है ।
जटिल - पर्यायमें मिध्याशास्त्र पढ़कर मैंने जिन भोगोंका आस्वादन किया था और मेरी आसक्तिके कारण मुझे जो नर-नारकादि पर्यायें प्राप्त हुई थीं, उनकी स्मृति - रेखा अभी भी अंकित है । विश्वनन्दीकी पर्यायमें मेरे द्वारा किये गये पराक्रमपूर्ण कार्य एवं विरक होती गयो साघनाकी स्मृति अक्षुण्ण है । त्रिपृष्ठनारायणको पर्यायमें मैंने संगीत, चित्र, नृत्य आदि विभिन्न कलाओं द्वारा जो मनोरंजन किया था, उसकी भी स्मृति मूली नहीं है। इस प्रकार मैंने विगत अनेक भवोंमें अपार वैभवका भोग किया है। यह सत्य है कि इस भोग-परम्परासे आत्म-साधना की उपलब्धि सम्भव नहीं है। वीतरागत्ताकी प्राप्ति
तीर्थंकर महावीर और उनकी देशना : १२७