Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 1
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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की भाव-भंगिमाएं व्यक्त को जाती हैं। देवाङ्गनाएं चित्रकला द्वारा माताके अन्तर्जीबनकी भूखको मिटानेवाले रसोंका सृजन करती थीं। वस्तुतः चित्रकला सन्तप्त हृदयों के समाधान और विश्रामके लिये अथवा दैनिक जीवनको क्षुद्र बना देनेवाली घटनाओंसे दूर हटाकर आन्तरिक जीवनको उद्दीपन और पोषण प्रदान करनेवाली दिव्य जड़ी है । चित्रकलाको प्रशस्तिमें सौन्दर्यको माता श्री अनेक बार उसइ हुई दिखलायी पड़ती है। मनोभावों में सुसम्पादन और लीला-वैविध्यका उद्रेक चित्ताकर्षक सौन्दर्यषा आग्रह करता है ।
चित्रकलाकी प्रवृत्ति अनादिकालस मानवसमाजमें पायी जाती है। विभिन्न सामाजिक स्तरोंकी जानकारी चित्रकला द्वारा प्राप्त की जाती है। मनोगत भावों एवं विभिन्न शारीरिक चेष्टाओ का अंकन भी चित्रकलामें सम्भव होता है। चित्रकलाका सर्वस्त्र उसकी भावधारा है और इस भावधाराका अंकन विभिन्न शैलियो द्वारा किया जाता है।
देवाङ्गनाएँ चित्रोको करुणाके सूत्रमें आवद्ध कर विभिन्न सभ्यताओंके संघर्ष और आघातोंका अंकन करती थीं। इनके द्वारा निर्मित चित्रों में निम्नांकित विशेषताएं उपलब्ध होती थीं :
(१) सादश्यकी उपेक्षा और भावको प्रधानता, (२) रंगानुकूल रेखाओंका चित्रण एवं विभिन्न गतिविधिका रूपांकन, (३) रंगों द्वारा भारतीय वातावरणका सृजन, (४) दृष्टि-सरणिको विषयपर अवलिम्बत न रहने देना, (५) शाश्वत सौन्दर्यका अंकन ।।
देवाङ्गनाएँ पद-चित्र, फलक-चित्र और भित्ति-चित्रों द्वारा माताका मनोरंजन करता हुई उनको सुसंस्कृत रुचिका परिष्कार करती थीं। बताया गया है कि देवियां आलस्थरहित होकर रत्नोंके चूर्णसे रंगावली तैयार कर धूलिचित्रोंका निर्माण करती थीं। रंग-विरंगे चौकके चारों ओर पुष्प विकीर्ण कर रसमय चित्रोंका निर्माण करती थीं । वीणा और मृदंग आदि वाद्य बजाती हुई देवियाँ मनोहर और आकर्षक चित्रों द्वारा माताके मनका आकर्षण करती थीं।
इस प्रकार नृत्य-गोष्ठी, वाद्य-गोष्ठो, संगीत-गोष्ठी, अभिनय-गोष्ठी, चित्रगोष्ठी आदिके द्वारा माता त्रिशलाके मनमें रस-माधुर्यका संचार करती थीं। काव्य-गोष्ठीद्वारा मनोरञ्जन ___ गर्भके नवम मासमें माता त्रिशलाके मनोविनोदार्थ देवियां विशिष्ट-विशिष्ट काव्य-गोष्ठियोंका आयोजन करती थीं। मूढ़ अर्थ, गूळ क्रिया, गूढ़ पाद एवं लुप्त मात्रा और अक्षरवाले पद्यों द्वारा माता त्रिशलाको प्रसन्न करती थीं। वे १०० : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा