Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 1
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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रही है। फसलोंकी हरीतिमाने जन-जनको पुलकित कर दिया है। पशुओंने मनार वैर
विलोड़ दिया है। भीली पिकारिणी-त्रिशलाकी शोभा-वृद्धिमें. हृदेची लज्जाकी समृद्धि में, धृतिदेवी धैर्य के संवर्द्धनमें, कीर्तिदेवी स्तुतिगानमें, बुद्धिदेवी विवेक और विचारके संरक्षणमें एवं लक्ष्मीदेवी धन-धान्य समद्धिकी वृद्धि में संलग्न हैं । माता त्रिशलाकी सेवा महल की परिचारिकाएं तो करती ही हैं, पर स्वर्गकी देवांगनाए भी आकर उनकी सेदा-शुश्रूषामें रह रही हैं।
यह सब कुछ विलक्षण, पर सुहावना दिखलायी पड़ता था । समस्त अन्त:पुर हर्ष और आनन्दमें विभोर था । माता-त्रिशलाकी की जानेवाली सेवा शब्दातीत थी 1 देवियों और परिचारिकाओं द्वारा की जानेवाली सेवाके समक्ष सभी हार मान जाते थे । त्रिशलाके मनोरंजन हेतु नाना प्रकार के साज-सामान एकत्र किये जाते थे । देवियां और परिचारिकाएँ माताके मनबहलावके हेतु विविध प्रकारके प्रश्न और पहेलियाँ पूछती थीं। प्रत्येक क्षण त्रिशलाकी समस्त सुख-सुविधाओंका ध्यान रखा जाता था।
महाराज सिद्धार्थ भी गर्भवती त्रिशलाके समस्त दोहदोंको पूर्ण करनेके लिये सचेष्ट थे। उन्होंने अनेक अप्रमत्त परिचारिकाएं नियत की थीं। वे सभी परिचारिकाएँ माताके स्वभाव और प्रवृत्तिका अध्ययन कर कार्य करती थीं। अद्भुत पुण्यके प्रभावसे समस्त समवाय विलक्षण ही था। ममोरखनार्य : संगीत, नृत्य एवं चित्रकला
भारतीय सभ्यतामें संगीत, नृत्य एवं चित्रादि कलाएँ मनोविनोद अथवा भोग-विलासका साधन नहीं है, अपितु इनमें तत्त्ववाद, कल्पनात्मक विस्तार एवं ऐतिहासिक परम्पराका प्रच्छन्न रूपपाया जाता है । कला केवल शारीरिक अनुरजन ही नहीं करती, अपितु मानसिक और बौद्धिक विकासका भी संकेस प्रस्तुत करती है। तीर्थंकर महावीरकी माता त्रिशलाके मनोविनोदार्थ संगीत एवं नृत्यादि कलाएं सेवाके हेतु प्रस्तुत देवियोंने उपस्थित की। नवीन रूपकों, नयी रेखाओं एवं नये रंगोंसे विभिन्न प्रकारके चित्रोंका निर्माण कर माताको प्रसन्न किया। विवालों, काट-फलकों एवं वस्त्रोंके ऊपर भी विचित्र, अविचित्र एवं रसचित्र अंकित किये गये। कलाद्वारा विभिन्न प्रकारको लोलाएँ एवं शिल्प-साधनाएँ चित्रित कर सत्य, शिव और सौन्दर्यकी पूर्णतया अभिव्यक्ति की गयी है। लोक-जीवनकी रसभरी प्रेरणा द्वारा राग-रागिनी, ऋतुवर्णन, लोला-वर्णन एवं प्रकृतिके रम्य रूप उपस्थितकर माताका अनुरंजन किया जाने लगा। ९६ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा