Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 1
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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संघमें आये । परिवाजक शब्द भी यह संकेत करता है कि संजय वैदिक संस्कृतिसे सम्बद्ध थे।
संजयने विक्षेपवादका प्रवर्तन किया है। इनके सिद्धान्तमें परलोक आदिका अस्तित्व स्वीकार नहीं किया गया है। परलोक, कर्मफल, मृत्यु, पुनर्जन्म, आत्मा आदिके सम्बन्धमें इनकी कोई निशिवत धारणा नहीं है।
गौतम बुद्धने समाजोत्थान और चार आर्य-सत्योंका उपदेश देकर जनताको सान्त्वना देने का प्रयास किया, पर एकान्त क्षणिकवादका प्रचार करने के कारण सत्यका आलोक उपस्थित न हो सका।
इस प्रकार तीर्थंकर पार्श्वनाथकी श्रमण-परम्परासे प्रभावित उपर्युक्त चिन्तकोंने भी समाजमें क्रान्ति लानेकी चेष्टा की, पर वे सफल न हो पाये। एक ही मतमें हिंसक और अहिंसक अनुयायी विद्यमान थे । आजोविकोंमें ऐसे दो पक्ष थे । पूर्णकाश्यप जीव-हिंसामें पुण्य-पाप नहीं मानते थे । प्रक्रुद्धकी भी यही स्थिति थी | अजित केशकम्बली वैदिक क्रियाकाण्डोंका विरोध अवश्य करते थे, परन्तु हिंसाको उचित मानते थे । इन विचारकोंमें इतना नैतिक बल नहीं था कि ये जनताको मांस-मदिराकी लिप्सासे बचा सकें। उस समय हस्ति तापस जैसे तपस्वी भी विद्यमान थे; जो वर्ष में एक बड़े हाथीको मारकर आजीविका चलाते थे और समस्त प्राणियोंके प्रति अनुकम्पा बुद्धि रखते थे। अहिंसाको धारा क्षीण हो रही थी और इन्द्रियनिग्रहकी चर्चा तो दूर ही थी।
ब्राह्मण-परम्परा वैदिक मान्यताओंकी रक्षाके लिये क्रियाशील थी । इसमें भी दो धाराएं परिलक्षित हो रही थीं। एक धाराके अनुयायी प्रश्नोपनिषद्के अधिष्ठाता पिप्पलादि, मुण्डकोपनिषद्के रचयिता भारद्वाज और कठोपनिषद्के प्रचारक नचिकेता थे । इन ऋषियोंने वैदिक कर्मकाण्ड में सुधार कर शान-यज्ञ, अहिंसा और सदाचारका प्रचार किया था । दूसरी परम्परा हिंसापूर्ण यज्ञादि उच्च करनेमें संलग्न थी। शूद्र और स्त्रियाँ मनुष्यकोटिम परिगणित नहीं थी । इनके साथ अभिजात्यवर्गकी अहंवादी प्रवृत्तिने नानाप्रकारके अत्याचार करना आरंभ किये थे। मनुष्यको वासना खुल-स्वेलकर सामने आती थी और भोग-विलासको प्रवृत्ति निरन्तर बढ़ रही थी। निःसन्देह वैदिक क्रियाकाण्डके प्रचारने धर्मतत्त्वकी आत्माको शुष्क बना दिया था । अनात्मवाद और कर्मकाण्डके सार्वभौमिक राज्यने मानवको आडम्बरमें फंसा दिया था और उसकी अन्तरात्मा प्रकाशके लिये बेचैन थी।
आध्यात्मिक जीवनका गौरव विस्मृत हो गया था और भौतिकताका महत्त्व ७८ :: तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा