Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 1
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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वाले कर्मकार मजदूरोंका भी अस्तित्व विद्यमान था । कर्मकारोंको पारिश्रमिक नगम जाता था !
सामग्री
क्रय-विक्रय से सूचित व्यापार और दुकानदारीका उल्लेख आया है । इससे यह भी निष्कर्ष निकलता है कि उस युगमें व्याजपर ऋण लेनेकी प्रथा भी विद्यमान थी । ऋण जिस मासमें देय होता था, उसके आधारपर ऋणका नाम पड़ता था । अष्टाध्यायी में अगहन या भागशीर्ष में देय ऋणको आग्रहायणिक और संवत्सर के अन्त में देय ऋणको सांवत्सरिक कहा गया है ।
कृषि सम्बन्धी शब्दावली में 'हल' या उसका पर्याय 'सीर' शब्द प्रचलित थे । जुताई और बोआईकी विधियोंका भी उल्लेख आया है। फसलोंका नामकरण उस महोने के नामसे होता था, जिसमें वे बोयी जाती थीं। खेतोंके नाम उनमें बोये जानेवाले धान्योंके नामसे रखे जाते थे । व्रीहि, शालि, जो, साठी, तिल, उड़द, अलसी एवं सन आदि धान्य बोये जाते थे । अनाज भरनेवाले थैलेका नाम गोणी और ढरकीका प्रवाणि नाम आये हैं। कुम्हार, चर्मकार, रंगसाज और सूती तथा रेशमी वस्त्र बुननेवाले बुनकर भी उस समय समाज में विद्यमान थे ।
महाभारतके अध्ययनसे भी उस समयकी आर्थिक समृद्धिका परिज्ञान प्राप्त होता है। नागरिक और ग्रामीण दोनों प्रकारके जीवनका परिचय प्राप्त होता है । घर मिट्टी, ईंट, पत्थर और लकड़ीसे बनाये जाते थे । मकानोंके बीचमें सड़क एवं गलियां रहती थीं। भवन और प्रासाद कई मंजिलोंके बनाये जाते थे । ग्रामोंके बाहर मंदिर एवं चेत्य बनवाने की प्रथा थी । कृषिके सम्बन्धमें विशेष उन्नति हुई थी । बौज, भूमिके मेद एवं मिट्टीके गुणोंका परिचय ज्ञात था। सिंचाईकी व्यवस्था भी विद्यमान थी । बाढयुक्त क्षेत्र केदार कहलाते थे। कपास, जौ, गेहूं, चावल, मूँग, तिल, उड़द, गन्ना एवं शाक आदि पर्याप्त मात्रामें उत्पन्न होते थे । ग्राम्य पशुओं में गाय, भैंस, भेड़, बकरी, अश्व, गज आदिको गणना की जाती थी। गो-पालन, दुग्धोत्पत्ति, घृत-निर्माण एवं विभिन्न प्रकार के मिष्टान्न निर्माण भी प्रचलित थे । सुनार, लुहार, रंगरेज, तेली, धोबी, दर्जी, तन्तुवाय, कुम्हार, चर्मकार आदि विभिन्न प्रकारके पेशे करनेवाले व्यक्ति विद्यमान थे ।
नगद लेन-देन और वस्तुओंकी अदला-बदलो दोनों ही प्रकारको प्रथाएँ प्रचलित थीं । राज्य व्यापारियोंसे परामर्श करके आयात-निर्यात, भड़सालको अवधि, मालको माँग एवं उसको उपलब्धिके आधारपर वस्तुओं का मूल्य निर्धारित करता था । व्यापारियोंके सामूहिक गठन विद्यमान थे, जो क्रय
६८ : तोर्थंकर महावीर और उनको आचार्य परम्परा